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शिव की तीसरी आंख से जुड़ी कथाएं और आध्यात्मिक महत्व

परमेश्वर शिव त्रिकाल दृष्टा, त्रिनेत्र, आशुतोष, अवढरदानी, जगतपिता आदि अनेक नामों से जानें जाते हैं। महाप्रलय के समय शिव ही अपने तीसरे नेत्र से सृष्टि का संहार करते हैं परंतु जगतपिता होकर भी शिव परम सरल व शीघ्रता से प्रसन्न होने वाले हैं। संसार की सर्व मनोकामना पूर्ण करने वाले शिव को स्वयं के लिए न ऐश्वर्य की आवश्यकता है न अन्य पदार्थों की। वे तो प्रकृति के मध्य ही निवासते हैं। कन्दमूल ही जिन्हें प्रिय हैं व जो मात्र जल से ही प्रसन्न हो जाते हैं।

जहां अन्य देवों को प्रसन्न करने हेतु कठिन अनुष्ठान किया जाता है वहीं शिव मात्र जलाभिषेक से ही प्रसन्न होते हैं। शिव का स्वरूप स्वयं में अद्भुत तथा रहस्यमय हैं। चाहे उनके शिखर पर चंद्रमा हो या उनके गले की सर्प माला हो या मृग छाला हो, हर वस्तु जो भगवान शंकर ने धारण कर रखी है, उसके पीछे गूढ़ रहस्य है। शास्त्रनुसार सभी देवताओं की दो आंखें हैं पर शिव के तीन नेत्र हैं। इस लेख के माध्यम से हम अपने पाठकों को बताते हैं क्यों हैं शिव के तीन नेत्र तथा इसके पीछे क्या रहस्य है।
 
श्लोकः त्वं ब्रह्मा सृष्टिकर्ता च त्वं विष्णुः परिपालकः। त्वं शिवः शिवदोऽनन्तः सर्वसंहारकः।।
 

भगवान शंकर का एक नाम त्रिलोचन भी है। त्रिलोचन का अर्थ होता है तीन आंखों वाला क्योंकि एक मात्र भगवान शंकर ही ऐसे हैं जिनकी तीन आंखें हैं। शिव के दो नेत्र तो सामान्य रुप से खुलते और बंद होते रहते हैं, शिव के दो नेत्रों को शास्त्रों ने चंद्रमा व सूर्य कहकर संबोधित किया है परंतु तीसरा नेत्र कुछ अलग संज्ञा लिए हुए होता है। वेदों ने शिव के तीसरे नेत्र को प्रलय की संज्ञा दी है। वास्तविकता में शिव के ये तीन नेत्र त्रिगुण को संबोधित है। दक्षिण नेत्र अर्थात दायां नेत्र सत्वगुण को संबोधित है। वाम नेत्र अर्थात बायां नेत्र रजोगुण को संबोधित है तथा ललाट पर स्थित तीसरा नेत्र तमोगुण को संबोधित करता है। इसी प्रकार शिव के तीन नेत्र त्रिकाल के प्रतीक है ये नेत्र भूत, वर्तमान, भविष्य को संबोधित करते हैं। इसी कारण शिव को त्रिकाल दृष्टा कहा जाता है। इनहीं तीन नेत्रों में त्रिलोक बस्ता है अर्थात स्वर्गलोक, मृत्युलोक व पाताललोक अर्थात शिव के तीन नेत्र तीन लोकों के प्रतीक हैं। इसी कारण शिव त्रिलोक के स्वामी माने जाते हैं।
 
त्रीद्लं त्रिगुनाकारम त्रिनेत्रम च त्रिधायुतम। त्रीजन्म पापसंहारम एक बिल्व शिव अर्पिन।।
 
शिव को परमब्रह्म माना जाता है। संसार की आंखें जिस सत्य का दर्शन नहीं कर सकतीं, वह सत्य शिव के नेत्रों से कभी ओझल नहीं हो सकता क्योंकि सम्पूर्ण संसार शिव की एक रचना मात्र है। इसी कारण तीन लोक इनके अधीन हैं। शिव का तीसरा नेत्र ज्ञान चक्षु है। यह विवेक का प्रतीक है। ज्ञान चक्षु खुलते ही काम जल कर भस्म हो जाता है। जैसे विवेक अपना ऋषित्व स्थिर रखते हुए दुष्टता को उन्मुक्त रूप में विचारने नहीं देता है तथा उसका मद-मर्दन करके ही रहता है। इसी कारण शिव के तीसरे नेत्र खुलने पर कामदेव जलकर भस्म हो गए थे।
 
शिव का तीसरा चक्षु आज्ञाचक्र पर स्थित है। आज्ञाचक्र ही विवेकबुद्धि का स्रोत है। तृतीय नेत्र खुल जाने पर सामान्य बीज रूपी मनुष्य की सम्भावनाएं वट वृक्ष का आकार ले लेती हैं। धार्मिक दृष्टि से शिव अपना तीसरा नेत्र सदैव बंद रखते हैं। तीसरी आंख शिव जी तभी खोलते हैं जब उनका क्रोध अपने प्रचुरतम सीमा से परे होता है। तीसरे नेत्र के खुलने का तात्पर्य है प्रलय का आगमन।
 
सूर्यस्त्वं सृष्टिजनक आधारः सर्वतेजसाम्। सोमस्त्वं सस्यपाता च सततं शीतरश्मिना।।
 
वास्तवक्ता में परमेश्वर शिव ने यह तीरा नेत्र प्रत्येक व्यक्ति को दिया है। यह विवेक अतःप्रेरणा के रूप में हमारे अंदर ही रहता है। बस जरुरत है उसे जगाने की। शिव के ज्ञान रुपी तीसरे नेत्र से ये प्रेरणा मिलती है कि मनुष्य धरती पर रहकर ज्ञान के द्वारा अपनी काम और वासनाओं पर काबू पाकर मुक्ति प्राप्त कर सके। अगर सांसरिक दृष्टि से देखा जाए तो नेत्रों का कार्य होता है मार्ग दिखाना व मार्ग में आने वाली मुसीबतों से सावधान करना। जीवन में कई बार ऐसे संकट भी शिव जी द्वारा दिए तीनों नेत्र संयम से प्रयोग में लेने चाहिए। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह व अहंकार इसी तीसरे नेत्र से हम में प्रवेश करते हैं तथा इसी तीसरे नेत्र से हम इन्हे भस्म भी कर सकते हैं। मकसद है इस आज्ञा चक्र को जाग्रत करके सही मार्ग पर ले जाने की।

 

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