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हाईकोर्ट सख्त: अपीलीय प्राधिकरण पर जुर्माना, दोषियों से वसूली का आदेश

जबलपुर  अपीलीय प्राधिकरण द्वारा निर्धारित अवधि में दायर अपील को समय अवधि के आधार पर खारिज कर दिया गया था। जबलपुर हाईकोर्ट जस्टिस विवेक अग्रवाल और जस्टिस ए. के. सिंह की युगलपीठ ने अपीलीय प्राधिकारी की गलती को स्वीकार करते हुए 25 हजार रुपये की कॉस्ट लगाई है। युगलपीठ ने अपने आदेश में कहा है कि कॉस्ट की राशि सरकारी खजाने से नहीं वसूली जाए। सरकार कॉस्ट की राशि दोषियों से वसूल कर सकती है। लक्ष्मी मोटर्स सतना की तरफ से दायर याचिका में कहा गया था कि अपीलीय प्राधिकारी और संयुक्त आयुक्त स्टेट टैक्स सतना के समक्ष उनकी तरफ से 26 नवंबर को खारिज कर दिया गया था। अपील 26 जुलाई 2024 को पारित आदेश को चुनौती देते हुए दायर की गई थी। अपीलीय प्राधिकरण ने अपने आदेश में कहा था कि अपील निर्धारित समय अवधि गुजरने के बाद दायर की गई है। एक महीने की अतिरिक्त छूट अवधि दी गई याचिकाकर्ता ने कहा था कि सर्वोच्च न्यायालय का स्पष्ट आदेश है कि सामान्य धारणा अधिनियम 1897 की धारा 9 में निहित प्रावधानों के अनुसार आदेश पारित करने की तिथि को छोड़कर सीमा अवधि की गणना की जाए। केंद्रीय वस्तु एवं सेवा कर अधिनियम 2017 में तीन महीनों की सीमा अवधि का प्रावधान है। धारा 107 की उपधारा (4) के अंतर्गत, अपीलीय प्राधिकारी को अपील पर विचार करने के लिए एक महीने की अतिरिक्त छूट अवधि दी गई है। आदेश जारी किए युगलपीठ ने माना कि अपील दायर करने की अवधि 27 जुलाई से प्रारंभ होकर 26 नवंबर 2024 को समाप्त हो रही थी। अपीलीय प्राधिकरण 25 नवंबर 2024 को दायर अपील को समय सीमा द्वारा वर्जित नहीं कर सकते थे। युगलपीठ ने कॉस्ट लगाते हुए उक्त आदेश जारी किए।

सरकारी क्वार्टर्स में पालतू जानवरों पर रोक? जबलपुर हाईकोर्ट ने कहा – आवास का उपयोग सिर्फ परिवार के लिए हो

जबलपुर  पालतू कुत्ते और बिल्लियां अब सिर्फ घर की खुशी का जरिया नहीं रह गई हैं, बल्कि कभी-कभी पड़ोसियों और परिवार के लिए कानूनी मुद्दा बन रही हैं। जबलपुर (Jabalpur) के व्हीकल फैक्ट्री में तैनात जूनियर वर्क्स मैनेजर (JWM) सैफ उल हक सिद्दीकी ने भी इसी कारण हाईकोर्ट का रुख किया, लेकिन शुक्रवार को सुनवाई के बाद कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी। मामला इस बात का है कि फैक्ट्री प्रशासन ने पड़ोसियों की शिकायत पर JWM को सरकारी क्वार्टर खाली करने के निर्देश दिए थे। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि सरकारी क्वार्टर परिवार के लिए है, और यदि डॉग पालने की जिम्मेदारी याचिकाकर्ता पर है, तो वह किराए के मकान में रहकर पालतू डॉग का पालन कर सकता है। पालतू डॉग्स और पड़ोसियों के बीच विवाद का कारण हाल ही में देखा गया है कि पालतू डॉग और बिल्लियां न केवल पति-पत्नी के बीच मतभेद का कारण बन रही हैं, बल्कि पड़ोसियों के साथ भी संबंधों को प्रभावित कर रही हैं। पड़ोसियों ने शिकायत की थी कि JWM के घर में कई पालतू कुत्ते और बिल्लियां रहने के कारण शोर और गंदगी बढ़ रही है। इस शिकायत के बाद फैक्ट्री प्रशासन ने सरकारी क्वार्टर खाली करने का आदेश जारी किया। JWM ने इसे अवैधानिक बताते हुए हाईकोर्ट में चुनौती दी। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि क्वार्टर आवंटन केवल परिवार के लिए होता है, और किसी भी पालतू जानवर को वहां रखने की जिम्मेदारी परिवार के अधिकार में नहीं आती। हाईकोर्ट का आदेश और तर्क जस्टिस विवेक जैन की अदालत ने याचिका खारिज करते हुए कहा कि फैक्ट्री प्रशासन का आदेश सही है। सरकारी क्वार्टर परिवार के रहने के लिए है, न कि पालतू जानवरों के लिए। पड़ोसियों की शिकायत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, और शांति बनाए रखना प्रशासन की जिम्मेदारी है। यदि याचिकाकर्ता पालतू डॉग पालना चाहते हैं, तो वह किराए का मकान लेकर अपनी जिम्मेदारी निभा सकते हैं। याचिकाकर्ता क्वार्टर का मालिक नहीं है, बल्कि इसे फैक्ट्री प्रशासन ने आवंटित किया है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि पालतू जानवरों के कारण उत्पन्न परेशानियों को प्रशासन और कानूनी तौर पर हल किया जा सकता है। देश-विदेश में पालतू जानवरों से जुड़े विवाद पालतू डॉग्स और बिल्लियों से जुड़े विवाद अब सिर्फ जबलपुर या किसी एक शहर तक सीमित नहीं रह गए हैं। यहां तक कि ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री ऋषि सुनक भी 2023 में अपने पालतू डॉग की वजह से सामाजिक और कानूनी बहस का हिस्सा बन चुके हैं। भारत में भी कई परिवारों में पालतू जानवरों ने घर की शांति को चुनौती दी है, कभी पति-पत्नी के बीच तलाक की नौबत आई, तो कभी पड़ोसियों के साथ मतभेद और कानूनी याचिकाओं की झड़ी लग गई। इसलिए पालतू जानवर सिर्फ घर की खुशी का जरिया नहीं रहे, बल्कि वे अब सामाजिक और कानूनी जिम्मेदारियों का भी हिस्सा बन गए हैं, जिनका पालन हर मालिक को सोच-समझकर करना पड़ता है। मिडिया और समाज पर प्रभाव इस मामले ने समाज में पालतू जानवरों और पड़ोसियों के अधिकार के बीच संतुलन की चर्चा शुरू कर दी है। मीडिया ने इसे बड़े पैमाने पर कवर किया, और सोशल मीडिया पर भी जब इस तरह के विषय उजागर होते हैं, तो लोग अपनी तरह-तरह की राय देने में पीछे नहीं रहते। अदालत के आदेश ने साफ कर दिया कि सरकारी आवास का उपयोग निजी जिम्मेदारी और पालतू जानवरों के लिए नहीं किया जा सकता। पड़ोसियों और मालिकों के बीच उत्पन्न विवाद अब प्रशासनिक और कानूनी दृष्टि से नियंत्रित किया जा सकता है।

न्यायिक व्यवस्था पर हाईकोर्ट की तल्ख टिप्पणी: ‘द्वितीय श्रेणी का व्यवहार न करें जिला जजों से’

जबलपुर  जबलपुर हाई कोर्ट के प्रशासनिक न्यायाधीश अतुल श्रीधरन व न्यायमूर्ति दिनेश कुमार पालीवाल की युगल पीठ ने अपने एक आदेश में महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि हाई कोर्ट और जिला कोर्ट के बीच सामंत और गुलाम जैसे रिश्ते हैं। जिला कोर्ट के जज हाई कोर्ट जजों से मिलते हैं तो उनकी बॉडी लैंग्वेज बिना रीढ़ की हड्डी वाले स्तनधारी के गिड़गिड़ाने जैसी होती है। हाई कोर्ट के जज खुद को सवर्ण और जिला कोर्ट के जजों को शूद्र समझते हैं। मध्यप्रदेश हाई कोर्ट ने एक फैसले में उच्च न्यायालय और जिला न्यायपालिका के रिश्तों को लेकर तीखी टिप्पणी की है। कोर्ट ने कहा कि दोनों के बीच का रिश्ता सामंती व्यवस्था जैसा है, जहां उच्च न्यायालय खुद को सवर्ण और जिला न्यायपालिका को शूद्र समझता है। कोर्ट ने कहा कि इस मामले में व्यापमं मामले में आरोपी को जमानत देने के कारण हाई कोर्ट ने संबंधित जज को बर्खास्त कर दिया। हाई कोर्ट के ऐसे कृत्य से जिला न्यायपालिका में संदेश जाता है कि बड़े मामलों में निर्दोष साबित करने, जमानत देने से संबंधित जज के खिलाफ के विपरीत कारवाई हो सकती है। कोर्ट ने गलत तरीके से बर्खास्त किए गए न्यायाधीश को बैकवेजेस के साथ पेंशन का भुगतान करने को कहा। कोर्ट ने याचिकाकर्ता जज को पांच लाख का मुआवजा प्रदान करने की निर्देश भी दिए। 2016 का है मामला, भोपाल जिला अदालत में पदस्थ थे जगत मोहन चतुर्वेदी 2016 में एससी एसटी एक्ट की विशेष न्यायाधीश के रूप में भोपाल जिला अदालत में पदस्थ रहे जगत मोहन चतुर्वेदी की ओर से यह याचिका दायर की गई थी। उन पर आरोप लगा था कि 2015 में व्यापमं मामले के आरोपी कुछ छात्रों को उन्होंने अग्रिम जमानत दी। जबकि इसी मामले में अन्य आरोपियों की जमानत अर्जी निरस्त कर दी। अलग-अलग तथ्यों के चलते विभिन्न आदेश दिए। इस पर हाई कोर्ट प्रशासन ने उनके विरुद्ध कदाचरण की कार्रवाई करते हुए बर्खास्त कर दिया। हाई कोर्ट की फुल कोर्ट मीटिंग में अनुमोदन किया गया। याचिकाकर्ता की अपील भी निरस्त कर दी गई। यह टिप्पणी जस्टिस अतुल श्रीधरन और जस्टिस दिनेश कुमार पालीवाल की बेंच ने दी। बेंच व्यापमं केस से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी। याचिका भोपाल के पूर्व एससी-एसटी कोर्ट जज जगत मोहन चतुर्वेदी ने लगाई थी। उन्हें एक आरोपी को अग्रिम जमानत देने के बाद बर्खास्त किया गया था। जिला जज ऐसे मिलते हैं जैसे रीढ़ हीन स्तनधारी कोर्ट ने डबल बेंच ने कहा कि जब जिला कोर्ट के जज हाई कोर्ट के जजों से मिलते हैं तो उनकी शारीरिक भाषा ऐसी होती है जैसे कोई रीढ़विहीन स्तनधारी गिड़गिड़ा रहा हो। रेलवे स्टेशन पर स्वागत करना, जलपान कराना आम बात हो गई है। हाई कोर्ट की रजिस्ट्री में प्रतिनियुक्त जजों को शायद ही कभी बैठने को कहा जाता है। इस मानसिकता का फैसलों पर भी असर यह रिश्ता सम्मान का नहीं, बल्कि डर और हीनता पर आधारित है। यह मानसिकता इतनी गहरी है कि असर न्यायिक फैसलों में भी दिखता है। कई बार योग्य मामलों में जमानत नहीं दी जाती या सबूतों के अभाव में दोषसिद्धि हो जाती है। सिर्फ इसलिए कि आदेश ‘गलत’ न मान लिया जाए। "डर के साए में न्याय नहीं, सिर्फ दिखावा" राज्य की न्याय प्रणाली की असली तस्वीर जिला कोर्ट की स्वतंत्रता से दिखती है, न कि केवल हाई कोर्ट से। लेकिन जब हाई कोर्ट बार-बार छोटी-छोटी बातों पर सख्त रवैया अपनाता है, तो जिला जज डर जाते हैं। परिवार, नौकरी और प्रतिष्ठा के डर से वे न्याय नहीं कर पाते, बस दिखावा करते हैं। कोर्ट का आदेश- सेवा लाभ बहाल हो.. कोर्ट ने माना कि याचिकाकर्ता जज को सिर्फ अलग सोचने और काम करने के कारण दंडित किया गया। हाई कोर्ट ने आदेश दिया कि उन्हें सेवा समाप्ति की तारीख से सेवानिवृत्ति तक का बकाया वेतन 7% ब्याज सहित दिया जाए। पेंशन और अन्य सेवा लाभ बहाल हों। मानसिक क्षति और सामाजिक अपमान के लिए 5 लाख रुपए का मुआवजा दिया जाए। तर्क दिया गया कि अलग-अलग मामलों के तथ्यों के आधार पर उन्होंने जज की हैसियत से अलग-अलग आदेश दिए थे। …अब यह कहा कोर्ट ने सुनवाई के बाद कोर्ट ने उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों और जिला न्यायपालिका के न्यायाधीशों के बीच निराशाजनक संबंध की आलोचना की। इसे एक सामंत और दास के बीच का रिश्ता बताया। कोर्ट ने कहा कि एक अहंकारी उच्च न्यायालय छोटी-छोटी गलतियों के लिए जिला न्यायपालिका को फटकार लगाने की कोशिश करता है, जिससे जिला न्यायपालिका को दंड के भय में रखा जाता है। पीठ ने कहा कि इससे न्याय व्यवस्था प्रभावित होती है। हाई कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा, जिला न्यायपालिका के न्यायाधीश जब उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का अभिवादन करते हैं, तो उनकी शारीरिक भाषा, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के सामने गिड़गिड़ाने जैसी होती है। जिससे जिला न्यायपालिका के न्यायाधीश अकशेरुकी यानि बिना रीढ़ के स्तनधारियों की प्रजाति बन जाते हैं। जिला न्यायपालिका के न्यायाधीशों द्वारा रेलवे प्लेटफार्म पर उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से व्यक्तिगत रूप से मिलने और उनके लिए जलपान की सेवा करने के उदाहरण आम हैं। उच्च न्यायालय की रजिस्ट्री में प्रतिनियुक्ति पर आए जिला न्यायपालिका के न्यायाधीशों को उच्च न्यायालय के न्यायाधीश कभी भी बैठने की पेशकश नहीं करते हैं। जब कभी उन्हें ऐसा मौका मिलता भी है, तो वे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के सामने बैठने में हिचकिचाते हैं। हाई कोर्ट ने कहा कि जाति व्यवस्था की छाया राज्य के न्यायिक ढांचे में स्पष्ट दिखाई देती है, जहां उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सवर्ण हैं और जिला न्यायपालिका के जज शूद्र व दयनीय हैं। इससे जिला न्यायपालिका मानसिक रूप से कमजोर हो जाती है, जो अंतत: उनके न्यायिक कार्यों में परिलक्षित होती है। जहां सबसे योग्य मामलों में भी जमानत नहीं दी जाती, अभियोजन पक्ष को संदेह का लाभ देकर सबूतों के अभाव में दोषसिद्धि दर्ज की जाती है और आरोप ऐसे लगाए जाते हैं, मानो दोषमुक्त करने का अधिकार ही न हो। यह सब उनकी नौकरी बचाने के नाम पर होता है, जिसका खामियाजा इस मामले में याचिकाकर्ता को अलग तरह से सोचने और काम करने के कारण भुगतना पड़ा। हाई कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता सेवानिवृत्त हो चुका है। उसके साथ हुए … Read more