मनुष्य के मन पर शब्दों का बोझ है। यही बोझ उसकी मानसिक गुलामी का कारण भी है। जब तक यह दीवार टूट नहीं जाती, तब तक न सत्य जाना जा सकता है, न आनंद, न आत्मा।
जीवन की असली खोज सत्य की खोज है और उसकी पहली शर्त है स्वतंत्रता। जिसके मन का स्वभाव दासता से बंधा है, उसके लिए परमात्मा तक पहुंचने की संभावना भी समाप्त हो जाती है। केवल वही आत्माएं सत्य को जान पाती हैं, जिन्होंने अपने मन को हर बंधन से मुक्त कर लिया हो।
इस विषय पर एक मित्र ने प्रश्न किया-यदि हम शब्दों से मौन हो जाएं, मन शून्य हो जाए, तो संसार का व्यवहार कैसे चलेगा? यह भ्रम है कि अशांत मन ही जीवन को चलाता है। यह वैसा ही प्रश्न है, जैसे बीमार पूछें-यदि हम स्वस्थ हो जाएं, तो जीवन कैसे चलेगा? या पागल पूछें-यदि हम सामान्य हो जाएं, तो व्यवहार कैसे संभव होगा?
वास्तविकता यह है कि संसार का अधिकतर कष्ट और अराजकता अशांत मन के कारण है। फिर भी यदि अशांति के बीच जीवन चल रहा है, तो यह आश्चर्य है। दरअसल शांत और स्थिर मन समाज को बाधित नहीं करता, बल्कि उसे स्वर्ग में बदलने की क्षमता रखता है। जितना मन शब्दों से मुक्त होकर शांत होता है, उतनी ही गहरी दृष्टि विकसित होती है।
जीवन का क्रम चलते रहेगा-मनुष्य बोलेगा, चलेगा, कार्य करेगा-परंतु वह सब एक नई गुणवत्ता से भरा होगा। ऐसे व्यक्ति का जीवन दूसरों में अशांति पैदा नहीं करेगा, और दूसरे की अशांति उसकी शांति को भंग नहीं कर पाएगी। यहां तक कि अप्रिय व्यवहार भी उसे फूल के समान प्रतीत होगा, और वह स्वयं किसी पर विष की वर्षा करने में असमर्थ रहेगा।
समस्या यह है कि मानव समाज ने सामूहिक रूप से मन को शांत करने का मार्ग नहीं अपनाया। इसी कारण हमें स्वर्ग आकाश में कल्पना करना पड़ा, जबकि यह धरती भी पूर्णत: स्वर्ग बन सकती है। स्वर्ग का असल अर्थ है-जहां शांत और भले लोग हों।
सुकरात से मृत्यु से पहले एक प्रश्न पूछा गया कि क्या वे स्वर्ग में जाना चाहेंगे या नरक में। उन्होंने उत्तर दिया-"इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मुझे कहां भेजा जाएगा, क्योंकि मैं जहां भी रहूंगा, अपना स्वर्ग अपने साथ ले जाऊंगा।"