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ईडी गिरफ्तारी पर चुनौती: चैतन्य बघेल की याचिका हाईकोर्ट ने ठुकराई

बिलासपुर ईडी की गिरफ्तारी को चुनौती देने वाली चैतन्य बघेल की याचिका को हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया है. जस्टिस अरविंद कुमार वर्मा की सिंगल बेंच में यह निर्णय लिया गया है. दोनों पक्षों को सुनने के बाद 24 सिंतबर को फैसला सुरक्षित रखा गया था. याचिका में ईडी की कार्रवाई को असंवैधानिक और नियम विरुद्ध बताया गया था. ईडी ने पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के बेटे चैतन्य बघेल को उनके जन्मदिन पर 18 जुलाई को भिलाई निवास से धन शोधन निवारण अधिनियम (PMLA), 2002 के तहत गिरफ्तार किया था। शराब घोटाले की जांच ईडी ने भारतीय दंड संहिता (IPC) की विभिन्न धाराओं और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत एसीबी/ईओडब्ल्यू रायपुर द्वारा दर्ज एफआईआर के आधार पर शुरू की थी। प्रारंभिक जांच में सामने आया है कि इस घोटाले के कारण प्रदेश के खजाने को भारी नुकसान हुआ और करीब 2,500 करोड़ रुपये की अवैध कमाई (पीओसी) घोटाले से जुड़े लाभार्थियों की जेब में पहुंचाई गई। ईडी की जांच में पता चला है कि चैतन्य बघेल को शराब घोटाले के 16.70 करोड़ रुपये मिले हैं। उन्होंने इस पैसे का इस्तेमाल अपनी रियल एस्टेट फर्मों में किया है। इस पैसे का उपयोग उनके प्रोजेक्ट के ठेकेदार को नकद भुगतान, नकदी के खिलाफ बैंक प्रविष्टियों आदि के माध्यम से किया गया था। उन्होंने त्रिलोक सिंह ढिल्लों के साथ भी मिलीभगत की और अपनी कंपनियों का उपयोग एक योजना तैयार करने के लिए किया, जिसके अनुसार उन्होंने त्रिलोक सिंह ढिल्लों के कर्मचारियों के नाम पर अपने “विठ्ठलपुरम प्रोजेक्ट” में फ्लैटों की खरीद की आड़ में अप्रत्यक्ष रूप से 5 करोड़ रुपये प्राप्त किए। बैंकिंग ट्रेल है जो इंगित करता है कि लेन-देन की प्रासंगिक अवधि के दौरान त्रिलोक सिंह ढिल्लों ने अपने बैंक खातों में शराब सिंडिकेट से भुगतान प्राप्त किया। पहले से गिरफ्त में हैं कई बड़े चेहरे ईडी ने शराब घोटाला मामले में पूर्व आईएएस अनिल टुटेजा, अरविंद सिंह, त्रिलोक सिंह ढिल्लों, अनवर ढेबर, ITS अरुण पति त्रिपाठी और पूर्व मंत्री व वर्तमान विधायक कवासी लखमा को गिरफ्तार किया है। फिलहाल, मामले में आगे की जांच जारी है।

पीड़िता के बयान और सहमति को देखते हुए हाईकोर्ट ने CAF जवान को बरी किया

बस्तर छत्तीसगढ़ के बस्तर में रेप के आरोप में 10 साल की सजा काट रहे सीएएफ के जवान रूपेश कुमार पुरी को हाईकोर्ट ने बरी कर दिया है। न्यायमूर्ति नरेश कुमार चंद्रवंशी की एकलपीठ ने कहा कि यह मामला प्रेम संबंध का है, झूठे विवाह वादे पर आधारित दुष्कर्म का नहीं। अदालत ने फास्ट ट्रैक कोर्ट जगदलपुर द्वारा 2022 में सुनाई गई सजा को रद्द कर दिया। कोर्ट ने क्या कहा.. हाईकोर्ट ने माना कि पीड़िता बालिग थी और लंबे समय तक अपनी मर्जी से आरोपी के साथ रही। दोनों के बीच बने शारीरिक संबंध आपसी सहमति से थे। अदालत ने कहा कि जब तक यह साबित न हो कि आरोपी ने शुरू से ही शादी का इरादा नहीं रखा था, तब तक ऐसे मामले को दुष्कर्म नहीं कहा जा सकता।   मामला कैसे शुरू हुआ साल 2020 में पीड़िता ने जवान रूपेश कुमार पुरी पर शादी का झांसा देकर रेप करने का आरोप लगाया था। कहा गया कि जवान ने उसे दो महीने तक घर में रखकर यौन शोषण किया और बाद में शादी से इनकार कर दिया। फास्ट ट्रैक कोर्ट ने रूपेश को 10 साल की सजा और 10 हजार रुपए जुर्माना लगाया था। क्या कहा बचाव पक्ष ने.. रूपेश के वकील ने दलील दी कि दोनों के बीच 2013 से प्रेम संबंध थे और पीड़िता अपनी मर्जी से आरोपी के घर गई थी। एफआईआर परिजनों के दबाव में दर्ज कराई गई। अदालत ने पाया कि पीड़िता ने खुद आरोपी को फेसबुक पर फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी थी और दोनों के बीच लंबे समय तक बातचीत होती रही। हाईकोर्ट का फैसला सभी सबूतों और बयानों की समीक्षा के बाद अदालत ने कहा कि यह मामला जबरन शोषण का नहीं, बल्कि प्रेम और सहमति का है। मेडिकल और एफएसएल रिपोर्ट में रेप के ठोस सबूत नहीं मिले। पीड़िता खुद आरोपी के घर गई और कई बार उसके साथ संबंध बनाए, जिसमें खुद युवती की भी मर्जी दिखी। इस आधार पर कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट का निर्णय रद्द करते हुए रूपेश कुमार पुरी को सभी आरोपों से बरी कर दिया।  

जाति प्रमाण पत्र मामले में खंडवा के विधायक कंचन तन्वे को न्यायालय ने दिया समर्थन

जबलपुर हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति विशाल धगट की एकलपीठ ने खंडवा से भाजपा विधायक कंचन तन्वे को राहत प्रदान की है। कोर्ट ने याचिकाकर्ता का वह आवेदन निरस्त कर दिया है, जिसमें विधायक के जाति प्रमाण पत्र की वैधता की सत्यता परखने के लिए राजस्व रिकार्ड तलब किए जाने की मांग की गई थी। कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि याचिकाकर्ता को उक्त आवेदन पूर्व में पेश करना था। जब मामले में मुद्दे तय हो गए और आवेदक ने अपनी गवाही समाप्त कर दी, तब उक्त आवेदन स्वीकार नहीं किया जा सकता। उक्त मत के साथ न्यायालय ने आवेदन निरस्त कर मामले की अगली सुनवाई एक सप्ताह बाद निर्धारित कर दी। याचिका खंडवा के आंबेडकर वार्ड निवासी कुंदन मालवीय की ओर से दायर की गई है।   आवेदक का कहना है कि तन्वे वर्ष 2023 में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित खंडवा सीट से भाजपा की उम्मीदवार थी। आरोप है कि अनावेदिका ने जो जाति प्रमाण पत्र पेश किया है, वह वैध नहीं, क्योंकि उक्त जाति प्रमाण पत्र का कोई प्रकरण क्रमांक नहीं है, न ही उसकी शासकीय कार्यालय में कोई फाइल है। इतना ही नहीं उक्त प्रमाण पत्र में पिता की जगह पति का नाम दर्ज है। याचिका में मांग की गई कि झूठा जाति प्रमाण पत्र पेश करने पर निर्वाचन शून्य घोषित किया जाना चाहिए। मामले में पूर्व में हुई गवाही के बाद आवेदक की ओर से जाति प्रमाण पत्र की सत्यता के लिए राजस्व रिकार्ड तलब किए जाने का आवेदन पेश किया गया था।

एचआइवी पाजिटिव महिला मरीज की पहचान सार्वजनिक करने पर हाई कोर्ट ने अस्पताल पर उठाया सवाल, सुनवाई 15 को

बिलासपुर  हाई कोर्ट ने रायपुर के डॉ. भीमराव आंबेडकर स्मृति चिकित्सालय में एचआइवी पाजिटिव महिला मरीज की पहचान सार्वजनिक करने की घटना पर कड़ी नाराजगी जताई है. मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति अमितेंद्र किशोर प्रसाद की खंडपीठ ने इस मामले में स्वतः संज्ञान लेते हुए राज्य सरकार के मुख्य सचिव से व्यक्तिगत शपथपत्र मांगा है. कोर्ट ने कहा कि यह कृत्य न केवल अमानवीय है बल्कि नैतिकता और निजता के अधिकार का घोर उल्लंघन है. मामले की अगली सुनवाई 15 अक्टूबर को होगी. दरअसल, 10 अक्टूबर को प्रकाशित खबर में बताया गया कि रायपुर के डॉ. भीमराव आंबेडकर अस्पताल में नवजात शिशु के पास एक पोस्टर लगाया गया, जिसमें यह लिखा था कि बच्चे की मां एचआईवी पाजिटिव है. रिपोर्ट के मुताबिक, यह पोस्टर गाइनो वार्ड में भर्ती मां और नर्सरी वार्ड में रखे नवजात बच्चे के बीच लगाया गया था. जब बच्चे के पिता अपने शिशु को देखने पहुंचे तो उन्होंने यह पोस्टर देखा और भावुक होकर रो पड़ा. कोर्ट ने इस मामले को तत्काल संज्ञान में लेते हुए सुनवाई की. कोर्ट ने कहा कि यह अत्यंत अमानवीय, असंवेदनशील और निंदनीय आचरण है, जिसने न केवल मां और बच्चे की पहचान उजागर कर दी बल्कि उन्हें सामाजिक कलंक और भविष्य में भेदभाव का शिकार भी बना सकता है. कोर्ट ने कहा कि यह कार्य सीधे तौर पर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और गरिमा के अधिकार का उल्लंघन है. अदालत ने टिप्पणी करते हुए कहा कि, राज्य के इतने प्रतिष्ठित चिकित्सा संस्थान से यह अपेक्षा की जाती है कि वह रोगियों के साथ अत्यधिक संवेदनशीलता और जिम्मेदारी के साथ व्यवहार करे. एचआइवी/एड्स जैसे सामाजिक रूप से संवेदनशील मामलों में पहचान उजागर करना गंभीर चूक है. मामले में कोर्ट ने छत्तीसगढ़ सरकार के मुख्य सचिव को निर्देश दिया है कि वे 15 अक्टूबर 2025 तक व्यक्तिगत शपथपत्र प्रस्तुत करते हुए यह स्पष्ट किया जाए कि, सरकारी अस्पतालों, मेडिकल कालेजों, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में मरीजों की गोपनीयता सुनिश्चित करने की वर्तमान व्यवस्था क्या है. इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए कर्मचारियों को संवेदनशील बनाने के क्या कदम उठाए गए हैं. डाक्टरों, नर्सों और पैरा-मेडिकल स्टाफ को कानूनी और नैतिक जिम्मेदारियों के प्रति जागरूक करने के लिए भविष्य में क्या उपाय प्रस्तावित हैं.  कोर्ट ने कहा- दोबारा ऐसी गलती न दोहराई जाए.

हाईकोर्ट का फैसला: केवल नोटों की बरामदगी से रिश्वत का आरोप सिद्ध नहीं, तहसील क्लर्क बरी

बिलासपुर हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में बिल्हा तहसील कार्यालय के तत्कालीन रीडर/क्लर्क बाबूराम पटेल को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत लगे आरोपों से बरी कर दिया है. कोर्ट ने कहा कि अभियोजन यह साबित करने में विफल रहा कि आरोपी ने रिश्वत की मांग की थी, या उसे अवैध लाभ के रूप में स्वीकार किया था. यह फैसला जस्टिस सचिन सिंह राजपूत की सिंगल बैंच ने सुनाया. 5000 की रिश्वत मांगने का आरोप दरअसल, लोकायुक्त कार्यालय, बिलासपुर में 20 फरवरी 2002 को शिकायतकर्ता मथुरा प्रसाद यादव ने शिकायत दर्ज कराई थी कि आरोपी बाबूराम पटेल ने उसके पिता की जमीन का खाता अलग करने के नाम पर 5000 रिश्वत की मांग की थी, जो बाद में 2000 में तय हुई. शिकायत के आधार पर लोकायुक्त पुलिस ने ट्रैप की कार्रवाई की. शिकायतकर्ता को 15 नोट 100 के दिए गए, जिन पर फिनाल्फ्थेलीन पाउडर लगाया गया था. आरोप था कि आरोपी ने 1500 रिश्वत ली, जिसे मौके पर पकड़ लिया गया. जांच के बाद उसे भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 7 और 13(1)(डी) सहपठित 13(2) के तहत दोषी ठहराया गया था. प्रथम अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश/विशेष न्यायाधीश, बिलासपुर ने 30 अक्टूबर 2004 को उसे एक-एक वर्ष की कठोर कारावास और 500-500 के जुर्माने की सजा सुनाई थी. आरोपी बाबूराम पटेल ने इस फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती दी. अपीलकर्ता की ओर से अधिवक्ता विवेक शर्मा ने तर्क दिया कि आरोपी के खिलाफ झूठा प्रकरण रचा गया है. शिकायतकर्ता की पत्नी पूर्व सरपंच थीं और उनके खिलाफ एक जांच में आरोपी ने भाग लिया था, जिससे निजी द्वेष के चलते झूठा फंसाया गया. उन्होंने यह भी कहा कि शिकायतकर्ता द्वारा दिया गया 1500 रिश्वत नहीं, बल्कि ग्रामवासियों से पट्टा शुल्क के रूप में वसूला गया बकाया राशि था, जिसे जमा कराने के लिए आरोपी ने कहा था. इसके अलावा, कुल 3180 की जब्ती राशि में से 1500 रिश्वत के रूप में चिन्हित करना भी संदिग्ध था. राज्य की ओर से शासकीय अधिवक्ता ने कहा कि अभियोजन के साक्ष्य पर्याप्त हैं और आरोपित ने अवैध रूप से 1500 रुपए लिए. केवल नोट मिलने से आरोपी सिद्ध नहीं होता : बिलासपुर हाईकोर्ट कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व निर्णय बी. जयाराज वर्सेज स्टेट आफ आंध्र प्रदेश (2014) और सौंदर्या राजन वर्सेज स्टेट (2023) का हवाला देते हुए कहा कि केवल नोटों की बरामदगी से रिश्वत का अपराध सिद्ध नहीं होता, जब तक मांग और स्वीकार का ठोस प्रमाण न हो. न्यायालय ने पाया कि, शिकायतकर्ता ने खुद कहा कि उसे यह स्पष्ट नहीं था कि 1500 रिश्वत थी या पट्टा शुल्क की राशि. उसने स्वीकार किया कि शिकायत लोकायुक्त एसपी के निर्देश पर लिखी गई थी और वह पूरी तरह नहीं पढ़ी गई थी. रिकार्ड किए गए वार्तालाप में भी आरोपी की आवाज स्पष्ट नहीं थी. ट्रैप टीम के तीन सदस्यों ने पैसे की बरामदगी के स्थान को लेकर विरोधाभासी बयान दिए, किसी ने दायें पाकेट, किसी ने बायें, तो किसी ने पीछे की जेब बताई. इन तथ्यों से कोर्ट ने कहा कि मांग, स्वीकारोक्ति और बरामदगी तीनों संदिग्ध और असंगत हैं. इसलिए, संदेह का लाभ आरोपी को दिया जाना चाहिए. कोर्ट ने सभी आरोपों से बरी कोर्ट ने कहा कि, अभियोजन अपना मामला संदेह से परे सिद्ध नहीं कर सका. ट्रायल कोर्ट ने साक्ष्यों का उचित मूल्यांकन नहीं किया. अतः दोषसिद्धि टिकाऊ नहीं है. इस आधार पर हाई कोर्ट ने 30 अक्टूबर 2004 का निर्णय रद्द करते हुए बाबूराम पटेल को सभी आरोपों से बरी कर दिया.

हाईकोर्ट का फैसला: पत्नी की आत्महत्या के मामले में पति निर्दोष, निचली अदालत ने ठहराया था दोषी

बिलासपुर पत्नी की आत्महत्या मामले में हाईकोर्ट ने पति को दोषमुक्त कर दिया है। न्यायमूर्ति नरेश कुमार चंद्रवंशी की एकलपीठ ने निचली अदालत की सजा को निरस्त करते किया। कोर्ट ने कहा, अभियोजन यह साबित नहीं कर सका कि आरोपी ने पत्नी को आत्महत्या के लिए उकसाया या उसके साथ ऐसी क्रूरता की, जिससे वह आत्महत्या करने को मजबूर हुई। पूरा मामला धमतरी जिले के सिहावा थाना क्षेत्र का है। पवन प्रजापति की पत्नी बसंती बाई की 6 दिसंबर 2019 को घर में आग लगने से मृत्यु हो गई थी। आरोपी ने खुद पुलिस को सूचना दी थी कि उसकी पत्नी आग में जल गई है। जांच के दौरान पुलिस ने घटना स्थल से जले हुए कपड़े, टायर के टुकड़े, माचिस, मिट्टी तेल की बोतल और अन्य सामान जब्त किया था। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में डाक्टर ने बताया कि मृतका के शरीर के महत्वपूर्ण अंग 3 से 4 डिग्री तक जले थे और मौत का कारण जलने से हुई दम घुटने को बताया गया। ट्रायल कोर्ट ने सुनाई थी पांच साल की सजा मर्ग जांच के बाद पुलिस ने आरोपी पति के खिलाफ धारा 306 (आत्महत्या के लिए दुष्प्रेरण) और 498-ए (पत्नी के प्रति क्रूरता) के तहत मामला दर्ज किया। आरोप था कि पति पवन शराब पीकर पत्नी से मारपीट करता था और यह कहकर ताना मारता था कि वह केवल बेटियां ही जन्म देती है। ट्रायल कोर्ट ने दिसंबर 2021 में आरोपित को दोषी पाते हुए 5 साल की सजा (धारा 306) और एक साल की सजा (धारा 498ए) सुनाई थी। पत्नी ने कभी नहीं की थी पुलिस में शिकायत हाईकोर्ट में आरोपी के वकील डीएन प्रजापति ने दलील दी कि अभियोजन का पूरा मामला केवल यह कहता है कि पवन शराब पीकर पत्नी से झगड़ा करता था, पर ऐसा कोई ठोस प्रमाण नहीं है कि उसने जानबूझकर पत्नी को आत्महत्या के लिए उकसाया या मारपीट की वजह से उसने आत्महत्या की। उसकी पत्नी ने कभी पुलिस में शिकायत नहीं की और उनकी बेटियां या परिजनों ने भी ऐसा कुछ नहीं कहा कि घर में गंभीर हिंसा होती थी। राज्य सरकार की ओर से पैनल लायर ने कहा कि पवन का व्यवहार क्रूर था और उसकी वजह से बसंती मानसिक रूप से परेशान रहती थी, जिससे उसने आत्महत्या कर ली। बैठक में पवन ने पत्नी को न सताने का किया था वादा कोर्ट ने मामले की पूरी गवाही, मेडिकल रिपोर्ट और सामाजिक साक्ष्य का विश्लेषण करते हुए कहा कि मृतका की दोनों बेटियों और भाभी ने स्पष्ट कहा कि पति-पत्नी में झगड़े नहीं होते थे। मृतका के भाइयों ने कहा कि कभी-कभी शराब पीने के बाद पवन पत्नी को मारता था, लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि ऐसा कितनी बार हुआ। पड़ोसी या स्थानीय गवाह, जो सबसे महत्वपूर्ण होते हैं, उन्हें पेश नहीं किया गया। समाज की बैठक में पवन ने पत्नी को न सताने का वादा किया था, पर यह भी एक सामान्य पारिवारिक विवाद की तरह था, न कि गंभीर क्रूरता जैसा। ‘कभी-कभी झगड़ा करना क्रूरता की श्रेणी में नहीं आता’ अदालत ने कहा कि केवल शराब पीना और कभी-कभी झगड़ा करना क्रूरता या आत्महत्या के लिए उकसाने की श्रेणी में नहीं आता। अदालत ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि ऐसे मामलों में केवल सामान्य आरोपों या घरेलू मतभेदों के आधार पर व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

हाईकोर्ट ने माना पुलिस की यातना जिम्मेदार, युवक की मौत पर राज्य सरकार को मुआवजा देने का निर्देश

बिलासपुर पुलिस हिरासत में युवक की संदिग्ध मौत के मामले में हाईकोर्ट ने सख्त रुख अपनाया है। कोर्ट ने राज्य सरकार को मृतक के परिवार को मुआवजा देने का आदेश दिया है। कोर्ट ने कहा, जहां किसी व्यक्ति की मौत पुलिस हिरासत में होती है, वहां मृत्यु का कारण स्पष्ट करना राज्य की जिम्मेदारी है। ऐसा न करना जीवन और गरिमा के अधिकार का उल्लंघन है। मौत के हालात यह दिखाते हैं कि मृतक को अमानवीय यातना दी गई थी और यह मामला कस्टोडियल बर्बरता का उदाहरण है। पूरा मामला धमतरी जिले के अर्जुनी थाना का है। याचिकाकर्ता दुर्गा देवी कैठोलिया ने बताया कि उनके पति दुर्गेंद्र कैठोलिया को 29 मार्च 2025 को धोखाधड़ी के आरोप में पुलिस ने गिरफ्तार किया था। 31 मार्च को उन्हें कोर्ट में पेश किया गया, जहां वे पूरी तरह स्वस्थ थे। शाम 5 बजे उन्हें फिर से थाने में रखा गया, जहां कुछ ही घंटों में उनकी मौत हो गई। परिजन का आरोप है कि पुलिस ने हिरासत में थर्ड डिग्री टार्चर दिया, जिससे दुर्गेंद्र की मौत हो गई। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में शरीर पर 24 चोटों का है जिक्र पोस्टमार्टम रिपोर्ट में शरीर पर 24 पूर्व-मृत्यु चोटों का जिक्र है। मौत का कारण दम घुटने से सांस न ले पाने को बताया गया। दूसरे दिन पुलिस ने परिवार को बताया कि दुर्गेंद्र बीमार पड़ गए थे और अस्पताल में भर्ती हैं, लेकिन बाद में पता चला कि उनकी पहले ही मौत हो चुकी थी। शव मिलने पर परिवार ने शरीर पर चोट के निशान देखकर हंगामा किया और उच्चाधिकारियों से शिकायत की। मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा कि सभी साक्ष्य साफ बताते हैं कि यह मौत पुलिस की यातना से हुई है। यह संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और सम्मान के अधिकार का सीधा उल्लंघन है। कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि मौत के हालात यह दिखाते हैं कि मृतक को अमानवीय यातना दी गई थी। मृतक की पत्नी और माता-पिता को मुआवजा देने के निर्देश हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला देते हुए राज्य सरकार को निर्देश दिया कि मृतक की पत्नी दुर्गा देवी को तीन लाख की राशि दी जाए, ताकि वह और उनके दो नाबालिग बच्चों की देखभाल कर सकें। मृतक के माता-पिता को प्रत्येक एक लाख दिए जाएं। यह भुगतान 8 हफ्ते के भीतर किया जाए अन्यथा राशि पर 9 प्रतिशत वार्षिक ब्याज लगेगा।

सहारा शहर को सील करने के फैसले पर रोक के लिए कंपनी पहुंची हाईकोर्ट

लखनऊ  सहारा ने नगर निगम द्वारा सहारा शहर में लीज पर दी गई जमीनों और उन पर बनी संपत्तियों में हस्तक्षेप को चुनौती दी है। याचिका 8 अक्तूबर को न्यायमूर्ति संगीता चंद्रा और न्यायमूर्ति अमिताभ कुमार राय की खंडपीठ के समक्ष सूचीबद्ध है। याचिका में नगर निगम द्वारा 8 और 11 सितंबर 2025 को जारी किए गए आदेशों को रद्द करने का आग्रह किया गया है। सहारा ने याचिका में कहा है कि इस मामले में सिविल कोर्ट में पहले से ही स्थगन आदेश लागू है। इसके अलावा, आर्बिट्रेशन की कार्यवाही में भी नगर निगम को सहारा के पक्ष में लीज एग्रीमेंट बढ़ाने के निर्देश दिए गए थे, लेकिन नगर निगम ने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया। कंपनी का यह भी आरोप है कि कार्रवाई करने से पहले उसे सुनवाई का उचित अवसर नहीं दिया गया। याचिका के अनुसार, नगर निगम ने 22 अक्टूबर 1994 और 23 जून 1995 को गोमती नगर में सहारा को जमीन पट्टे पर दी थी। सहारा ने इन जमीनों पर 2480 करोड़ रुपए की लागत से 87 आवासीय और वाणिज्यिक संपत्तियां विकसित की हैं। दशकों से विवादों में है यह जगह, बन सकती है विधानसभा? सहारा शहर शुरू से ही विवादों में रहा। नगर निगम से लीज मिलने के तीन साल बाद ही कानूनी विवाद शुरू हो गया था, जो 27 साल तक चलता रहा। ऐसे में आवासीय योजना कभी परवान नहीं चढ़ सकी और करोड़ों का लीज रेंट भी नगर निगम को नहीं मिला। नगर निगम ने सहारा हाउसिंग कंपनी को 130 एकड़ जमीन आवासीय योजना और 40 एकड़ ग्रीन बेल्ट विकसित करने के लिए 30 साल की लीज पर दी थी। यह अनुबंध महज 100 रुपये के स्टांप पेपर पर किया गया था, लेकिन तीन साल बाद लीज शर्तों के उल्लंघन पर तत्कालीन नगर आयुक्त दिवाकर त्रिपाठी ने इसे निरस्त करने का नोटिस जारी कर दिया। इसके बाद मामला अदालत में चला और साल तक अटका रहा। करीब 10 साल पहले जब सहारा की स्थिति सुधरी तो लीज रजिस्टर्ड की गई और संशोधन भी हुआ। एलडीए में मानचित्र भी पास करने के लिए भेजा गया। सहारा ने 15 आवंटियों की सूची भी दी, ताकि यह साबित कर सके कि योजना पर काम चल रहा है, लेकिन वे आवंटी कभी सामने नहीं आए और उनके नाम पर लीज डीड भी नहीं हो सकी। सेबी के दखल और कानूनी उलझनों के चलते योजना ठप पड़ गई। लीज की अवधि पूरी होने के बाद नगर निगम ने जमीन पर कब्जा ले लिया है। सहारा सिटी की जमीन पर अब क्या बनेगा, इसे लेकर कई अटकलें हैं। सूत्रों के अनुसार, सरकार नई विधानसभा भवन के लिए करीब 200 एकड़ जमीन की तलाश लंबे समय से कर रही है। ऐसे में नगर निगम की 170 एकड़ और एलडीए की 75 एकड़ जमीन को मिलाकर करीब 245 एकड़ क्षेत्र यहां उपलब्ध है। यह जगह लोकेशन और आवागमन दोनों के लिहाज से उपयुक्त मानी जा रही है।  

ट्रांसफर आदेश पर हाईकोर्ट की रोक, 200 शिक्षक नहीं होंगे स्थानांतरित

 जबलपुर मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति मनिंदर सिंह भट्टी की एकलपीठ ने जबलपुर सहित राज्य के अन्य जिलों के एकलव्य आवासीय विद्यालयों में पदस्थ 200 शिक्षकों को सामूहिक रूप से खंडवा स्थानांतरित करने के आदेश को अनुचित पाया। इसी के साथ आदेश के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी। कोर्ट ने शिक्षकों को वर्तमान एकलव्य विद्यालय में पदस्थ रखने की व्यवस्था दी है। याचिकाकर्ता एकलव्य आवासीय विद्यालय, रामपुर छापर में पदस्थ उपमा शांडिल्य की ओर से अधिवक्ता सुधा गौतम ने पक्ष रखा। उन्होंने दलील दी कि 23 सितंबर, 2025 को आदेश जारी कर याचिकाकर्ता सहित जबलपुर सहित राज्य के अन्य जिलों के विभिन्न एकलव्य आवासीय विद्यालयों में पदस्थ 200 शिक्षकों को सामूहिक रूप से खंडवा स्थानांतरित कर दिया गया था। याचिकाकर्ता 2024 में उच्च पद प्रभार पर रामपुर छापर के एकलव्य आवासीय विद्यालय में पदस्थ हुई थी। दरअसल, 11 नवंबर, 2024 को संभागायुक्त, जबलपुर ने एक पत्र जारी किया था, जिसके जरिये साफ किया गया था कि एकलव्य विद्यालयों में स्थान नहीं है, इसलिए शिक्षक स्थानांतरण के विकल्प पेश करें। जिसके बाद याचिकाकर्ता ने एकलव्य विद्यालय, रामपुर छापर, रांझी व सदर के विकल्प भरे थे। इसके बावजूद इन विकल्पों को दरकिनार कर खंडवा भेजने का आदेश जारी कर दिया गया। इसी लिए हाई कोर्ट की शरण ली गई। हाई कोर्ट ने सुनवाई के बाद 23 सितंबर, 2025 के आदेश को अनुचित पाकर स्थानांतरण पर रोक लगा दी।

हाईकोर्ट ने जयपुर रियासत के ‘महाराज’ और ‘राजकुमारी’ उपाधियों पर लगाई रोक

जयपुर राजस्थान हाईकोर्ट ने पूर्व जयपुर राजपरिवार के वंशजों को गृह कर लगाने के मामले में अपनी याचिकाओं से महाराज और राजकुमारी उपसर्ग हटाने का निर्देश दिया है। हाईकोर्ट ने चेतावनी दी कि यदि 13 अक्तूबर तक सुधार नहीं किया गया तो 24 साल पुराने मामले को बिना सुनवाई के खारिज कर दिया जाएगा। जस्टिस महेंद्र कुमार गोयल ने पिछले सप्ताह गृह कर लगाने से संबंधित 24 वर्ष पुराने मामले में यह आदेश जारी किया। याचिका जयपुर राजघराने के दिवंगत जगत सिंह और पृथ्वीराज सिंह के कानूनी उत्तराधिकारियों की ओर से दायर की गई है। कोर्ट ने वाद शीर्षक में शाही सम्मानसूचक शब्दों के प्रयोग पर आपत्ति जताई तथा याचिकाकर्ताओं को संशोधित दस्तावेज दाखिल करने का निर्देश दिया। इसमें कहा गया है कि यदि अगली सुनवाई से पहले आदेश का पालन नहीं किया गया तो मामला सुनवाई किए बिना खारिज कर दिया जाएगा।