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हाईकोर्ट का फैसला: पति के लिए आपत्तिजनक भाषा और अलगाव की जिद को माना मानसिक अत्याचार

बिलासपुर  छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में पत्नी द्वारा पति को ‘पालतू चूहा’ कहने और ससुराल के माता-पिता से अलग रहने की जिद को मानसिक क्रूरता करार दिया है. अदालत ने फैमिली कोर्ट के निर्णय को बरकरार रखते हुए पति को तलाक की मंजूरी दे दी. साथ ही, पत्नी को 5 लाख रुपये का स्थायी गुजारा भत्ता और बेटे के लिए मासिक भत्ता देने का आदेश दिया है. मामला एक दंपती का है, जहां पत्नी ने पति पर मानसिक प्रताड़ना के आरोप लगाए थे, लेकिन हाईकोर्ट ने पत्नी के व्यवहार को ही क्रूरता माना. कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा, भारतीय संयुक्त परिवार व्यवस्था में पति को माता-पिता से अलग करने की जिद रखना स्पष्ट रूप से मानसिक क्रूरता है. न्यायमूर्ति ने जोर देकर कहा, पारंपरिक परिवार संरचना में ऐसी मांगें वैवाहिक संबंधों को तोड़ने का आधार बन सकती हैं. फैमिली कोर्ट का फैसला सही फैमिली कोर्ट ने पहले ही पति की याचिका पर तलाक मंजूर किया था, लेकिन पत्नी ने इसे हाईकोर्ट में चुनौती दी. सुनवाई के दौरान पति ने दावा किया कि पत्नी का अपमानजनक व्यवहार और अलग रहने की जिद ने उनके जीवन को नर्क बना दिया. अदालत ने सबूतों की जांच के बाद फैमिली कोर्ट के फैसले को सही ठहराया. यह फैसला वैवाहिक विवादों में मानसिक क्रूरता की परिभाषा को विस्तार देता है. पीड़ित पतियों को राहत मिलेगी! कानूनी विशेषज्ञों का मानना है हाईकोर्ट के इस फैसले से पतियों को राहत मिलेगी, जो पत्नियों के ऐसे व्यवहार से परेशान हैं. वहीं, इस मामले में पत्नी को गुजारा भत्ता देने का आदेश देकर अदालत ने आर्थिक न्याय भी सुनिश्चित किया. मामले की सुनवाई पूरी होने के बाद पति ने राहत की सांस ली.

शादी का वादा और सहमति से संबंध पर FIR नहीं टिकेगी, हाई कोर्ट ने युवक पर केस किया रद्द

 चडीगढ़  पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने अहम आदेश में यह स्पष्ट कर दिया कि दो वयस्कों के बीच सहमति से बने शारीरिक संबंध को केवल इस कारण दुष्कर्म नहीं कहा जा सकता कि अंततः विवाह नहीं हो पाया। अदालत ने हरियाणा के एक युवक के खिलाफ दर्ज दुष्कर्म के मामले में एफआईआर रद्द कर दी। जस्टिस कीर्ति सिंह की एकलपीठ ने स्पष्ट किया कि यदि किसी महिला की सहमति विवाह के झूठे वादे पर ली गई थी यह साबित करना है तो यह दिखाना आवश्यक है कि आरोपी की शुरू से ही शादी करने की कोई मंशा नहीं थी और उसने केवल शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए झूठा वादा किया। मामले में शिकायतकर्ता महिला और युवक की सगाई हो चुकी थी। दोनों लंबे समय तक रिश्ते में रहे और रोका समारोह भी संपन्न हुआ था। यहां तक कि नवंबर 2024 की शादी की तारीख भी तय कर दी गई थी। लेकिन बाद में दोनों परिवारों में मतभेद उभर आए और विवाह नहीं हो सका। इसके बाद युवती ने युवक पर दुष्कर्म का मामला दर्ज करा दिया।  हाईकोर्ट ने कहा कि रिकॉर्ड से स्पष्ट है कि दोनों ही शिक्षित और परिपक्व वयस्क थे और शुरू से ही संबंध सहमति से बने थे। यह भी सामने आया कि विवाह न होने का कारण केवल दोनों परिवारों के बीच उत्पन्न मतभेद थे। अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला देते हुए दोहराया कि केवल विवाह का वादा पूरा न होने से दुष्कर्म का मामला नहीं बनता, जब तक यह साबित न हो कि आरोपी की नीयत शुरू से ही धोखाधड़ी करने की थी।  कोर्ट ने टिप्पणी की कि यह मामला इस बात का उदाहरण है जब एक सहमति आधारित संबंध, अपेक्षा अनुसार विवाह में परिणत न होने पर आपसी रंजिश का शिकार बन गया और उसे आपराधिक रंग दे दिया गया। ऐसा दुरुपयोग न्यायालयों द्वारा बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। इस आधार पर अदालत ने आरोपी के खिलाफ दर्ज एफआईआर रद्द कर दी। 

हाईकोर्ट का फैसला: दोबारा विवाह करने पर तलाक आदेश पर नहीं कर सकते आपत्ति

जबलपुर   हाईकोर्ट ने अपने अहम आदेश में कहा है कि पुनर्विवाह हो जाने के बाद विवाह विच्छेद आदेश को चुनौती देने वाली अपील प्रचलन योग्य नहीं है। अपील निर्धारित समय सीमा में दायर की जाती तो सुनवाई योग्य थी। हाईकोर्ट जस्टिस विशाल धगट तथा जस्टिस अनुराधा शुक्ला ने अपील को खारिज करते हुए अपने आदेश में कहा है कि सुनवाई करने से तीसरे पक्ष के वैवाहिक नागरिक अधिकार खतरे में पड़ सकता है। नरसिंहपुर निवासी रजनी पटेल की तरफ से दायर अपील में कुटुम्ब न्यायालय जबलपुर के द्वारा 24 जून 2022 को पारित विवाह विच्छेद आदेश को चुनौती दी गयी थी। युगलपीठ ने सुनवाई के दौरान पाया कि अपीलकर्ता ने तलाक के आदेश को चुनौती देते हुए 6 दिसम्बर 2022 को अपील दायर की थी। अपीलकर्ता ने निर्धारित अवधि के 130 दिन बाद आदेश को चुनौती देते हुए अपील दायर की है। प्रतिवादी ने अपील की निर्धारित अवधि पूर्ण होने के बाद 28 अक्तूबर 2022 को पुनर्विवाह कर लिया है। अपीलकर्ता निर्धारित समय अवधि में अपील दायर करती तो हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 15 के अंतर्गत पुनर्विवाह पर प्रतिबंध का प्रावधान था। प्रतिवाद ने अपील दायर करने की निर्धारित समय सीमा पूर्ण होने के बाद वैध रूप से पुनर्विवाह किया है। समय अवधि के लिए क्षमादान प्रदान करने के बावजूद भी अपील में गुण-दोष के आधार पर निर्णय लेने के प्रतिकूल प्रभाव होंगे। इससे तीसरे पक्ष के वैवाहिक नागरिक अधिकार खतरे में पड़ेंगे। युगलपीठ ने अपील को खारित करते हुए निचली अदालत के समक्ष भरण-पोषण के लिए आवेदन प्रस्तुत करने अपीलकर्ता को स्वतंत्रता प्रदान की है।   

पिता-पुत्री के रिश्ते को कलंकित करने वाले पिता को तिहरी उम्रकैद

  इंदौर  इंदौर जिला कोर्ट ने 12 वर्षीय बालिका से रेप करने वाले पिता (35) को कठोर दंड देते हुए तिहरे आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। कोर्ट ने फैसले में टिप्पणी की कि आरोपी ने पिता-पुत्री जैसे पवित्र रिश्ते को कलंकित किया है, इसलिए न्यूनतम दंड विधिपूर्ण नहीं है। तलाक के बाद बेटी पिता के पास थी 21 जुलाई 2024 को पीड़िता की मां ने थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई थी। महिला ने बताया कि 2012 में उसने आरोपी से प्रेम विवाह किया था। विवाह से उन्हें दो संतानें हुईं- 12 वर्षीय बेटी (पीड़िता) और 6 वर्षीय बेटा। वर्ष 2020 में तलाक हो गया, जिसके बाद बेटी पिता के साथ और बेटा मां के साथ रहने लगा। अकेले होने पर पिता गलत काम करते 21 जुलाई 2024 को बालिका अपनी मुंहबोली मौसी के पास रोते हुए पहुंची और आपबीती सुनाई। उसने बताया कि पिता घर पर अकेले होने पर कई बार उसके साथ गलत काम करते हैं। पहली बार यह घटना दो वर्ष पहले नए घर में हुई थी और हाल ही में 15 दिन पहले भी दोबारा रेप किया गया। बालिका ने बताया कि उसने दो-तीन बार दादी को भी इस बारे में बताया था, लेकिन उन्होंने ध्यान नहीं दिया। इसके बाद पड़ोस में रहने वाली मुंह बोली मौसी ने नानी को फोन कर पूरी घटना बताई। जिसके बाद नानी ने बेटी (बालिका की मां) को बुलाया और थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई। मामले की एक साल तक चली सुनवाई मामले की सुनवाई एक साल तक चली। प्रभारी डीपीओ राजेंद्र सिंह भदौरिया ने बताया कि जिला अदालत ने 18 सितंबर 2025 को फैसला सुनाया। कोर्ट ने आरोपी को पॉक्सो अधिनियम की धारा 5(एल)/6, 5(एन)/6 और 5(एम)/10 में दोषी पाते हुए तीन अलग-अलग आजीवन कारावास की सजा सुनाई। साथ ही 15 हजार रुपए का अर्थदंड भी लगाया गया। शासन की ओर से विशेष लोक अभियोजक सुशीला राठौर ने पैरवी की। पीड़ित प्रतिकर योजना के तहत बालिका को शारीरिक व मानसिक क्षति को देखते हुए 3 लाख रुपए दिलाने की अनुशंसा भी की है।

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की विशेष अदालत आज बुलाई गई, जमानत याचिकाओं पर होगी सुनवाई

जबलपुर  मध्य प्रदेश हाई कोर्ट में पहली बार 10 जज केवल जमानत याचिकाओं की सुनवाई करने के लिए बैठेंगे. मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश संजीव सचदेवा ने एक प्रशासनिक आदेश दिया है, जिसे हाई कोर्ट की वेबसाइट पर देखा जा सकता है. इसमें शनिवार को 10 जज अपनी-अपनी अदालत में बैठेंगे. वे केवल जमानत याचिकाओं की सुनवाई करेंगे. एमपी हाई कोर्ट में फिलहाल जमानत याचिकाओं के 3000 से ज्यादा मामले लंबित हैं. इन्हीं मामलों में लोगों को न्याय देने के लिए हाईकोर्ट ने यह व्यवस्था की है. हमारी न्याय व्यवस्था की प्रक्रिया में जमानत का प्रावधान है. जस्टिस अचल कुमार पालीवाल, जस्टिस प्रमोद कुमार अग्रवाल, जस्टिस देवनारायण मिश्रा, जस्टिस दीपक खोत, जस्टिस अजय कुमार निरंकारी, जस्टिस हिमांशु जोशी, जस्टिस रामकुमार चौबे, जस्टिस रत्नेशचंद्र सिंह बिसेन, जस्टिस बीपी शर्मा और जस्टिस प्रदीप मित्तल कल 20 सितंबर को केवल जमानत याचिकाएं सुनेंगे. जबलपुर की मुख्य पीठ में फिलहाल जमानत याचिकाओं के लंबित हैं 3000 से ज्यादा मामले मान लीजिए किसी के खिलाफ किसी थाने में कोई एफआईआर दर्ज होती है. जिसके बाद पुलिस आरोपी को पकड़ती है. पकड़ने के बाद पुलिस आरोपी के ऊपर लगे आरोप का एक चालान तैयार करती है, जिसे कोर्ट में पेश किया जाता है. धाराओं के आधार पर यह तय होता है कि उसे कौन सी कोर्ट जमानत दे सकती है. गंभीर धाराओं में मामला हाईकोर्ट तक पहुंचता है. जमानत की प्रक्रिया में आरोपी को अपने किसी ऐसे जानकार को पेश करना होता है, जिसके पास कोई स्थाई संपत्ति हो. स्थाई संपत्ति के कागजात के आधार पर आरोपी को जमानत दे दी जाती है. जमानत में यह शर्त होती है कि आरोपी को हर पेशी पर कोर्ट में आना होगा. इसके बाद ट्रायल चलती है. आरोपी पर लगे आरोप को गवाह और सबूत के आधार पर सिद्ध किया जाता है और इसके बाद सजा होती है या आरोपी बेगुनाह साबित होता है. जुर्म तय नहीं होने तक आरोपी को जेल में बंद रखना सही नहीं न्याय व्यवस्था की प्रक्रिया सरल है लेकिन सबूत और गवाह को इकट्ठा करने में काफी समय लगता है. इतने दिनों तक किसी भी आरोपी को जेल में बंद रखना सही नहीं है, क्योंकि अब तक यह तय नहीं होता कि उसने ही जुर्म किया है. इसलिए हमारी न्याय व्यवस्था जमानत का प्रावधान देती है. इसमें आरोपी को अपने परिचय के किसी ऐसे आदमी को कोर्ट में लेकर आना होता है जिसके पास कोई स्थाई संपत्ति हो. संपत्ति के कागजात के आधार पर आरोपी को जमानत मिल जाती है लेकिन उसे समय-समय पर कोर्ट में आना पड़ता है. इसके बाद यदि उसे सजा होती है तो वह जेल जाता है और आरोप सिद्ध नहीं होने पर वह जेल से छूट जाता है. मध्य प्रदेश हाई कोर्ट में लगभग पेंडिंग हैं चार लाख 80 हजार केस यह प्रक्रिया सुनने में या पढ़ने में जितनी सरल लगे लेकिन उतनी सरल है नहीं. क्योंकि हमारी अदालतों में लाखों केस पेंडिंग हैं. मध्य प्रदेश हाई कोर्ट में लगभग चार लाख 80 हजार केस पेंडिंग हैं. ऐसी स्थिति में यदि किसी आरोपी को पुलिस ने पकड़ा और उसे जेल भेज दिया गया. यदि वह जमानत के लिए हाई कोर्ट में जमानत याचिका लगाता है. लेकिन हाई कोर्ट में महज 41 जज हैं और रोज उनके पास सैकड़ो मामले होते हैं. ऐसी स्थिति में जेल में बंद विचाराधीन कैदियों को जमानत याचिका पर सुनवाई ही नहीं हो पाती. स्पेशल कोर्ट से हजारों लोगों को मिलेगा जमानत का फायदा एमपी हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले वकील एडवोकेट दीपक ने बताया कि यह प्रक्रिया यदि लगातार चलती रही तो हजारों लोगों को जमानत का फायदा मिलेगा और न्याय की प्रक्रिया तेज होगी. इसके साथ ही जिलों को भी राहत मिलेगी. क्योंकि हमारी जेलों में भी अभी क्षमता से ज्यादा कैदी बंद है.  

पराली मुद्दे पर सख्त CJI गवई, बोले – किसानों को जेल भेजने से सुधरेगी स्थिति

नई दिल्ली जैसे ही पराली के सीजन की हलचल शुरू हुई है वैसे ही एक बार फिर दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण को लेकर डिबेट शुरू हो गई है. इसी कड़ी में एक सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सख्त नाराजगी जताई है. मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई की अध्यक्षता वाली बेंच ने  सुनवाई के दौरान कहा कि किसानों का सम्मान किया जाता है क्योंकि वे हमारे अन्नदाता हैं. मगर किसी को भी पर्यावरण को प्रदूषित करने की छूट नहीं दी जा सकती. कोर्ट ने सरकार से पूछा कि पराली जलाने वालों पर दंडात्मक कार्रवाई क्यों नहीं हो रही. क्या कुछ किसानों को जेल भेजना सही मैसेज नहीं देगा?  शीर्ष अदालत ने कहा कि अगर पराली जलाने वाले कुछ को जेल भेजा तो सब ठीक हो जाएंगे क्योंकि यह मिसाल कायम करेगा। कोर्ट ने सख्त लहजे में कहा कि वह पराली जलाने वाले किसानों के खिलाफ कार्रवाई चाहता है। इसके साथ ही कोर्ट ने केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग को तीन महीने के भीतर सभी रिक्तियों को भरने का निर्देश दिया। दिल्ली-एनसीआर में हर साल अक्टूबर में होने वाले वायु प्रदूषण से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए देश के मुख्य न्यायाधीश (CJI) जस्टिस बीआर गवई ने बुधवार को कहा कि कुछ किसानों को पराली जलाने के लिए जेल भेजना दूसरों के लिए एक कड़ा संदेश हो सकता है। उन्होंने पूछा कि किसानों पर कार्रवाई करने से कतरा क्यों रहे हैं? तीन महीने के भीतर भरें रिक्तियां सुप्रीम कोर्ट ने प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों में रिक्तियों को लेकर राज्यों को फटकार भी लगाई और दिल्ली से सटे राज्यों उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और पंजाब को तीन महीने के भीतर रिक्तियों को भरने का निर्देश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने वायु प्रदूषण रोकने के उपायों पर वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग से तीन हफ्ते में रिपोर्ट भी मांगी है। इसके अलावा कोर्ट ने वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों से वायु प्रदूषण रोकने के लिए विचार-विमर्श कर योजनाएँ बनाने को कहा है। न्यायमित्र ने क्या कहा? इससे पहले, मामले में न्यायमित्र नियुक्त अपराजिता सिंह ने CJI गवई की अध्यक्षता वाली पीठ को बताया कि पराली जलाने की समस्या से निपटने के लिए किसानों को सब्सिडी और उपकरण दिए गए हैं। उन्होंने कहा, “लेकिन किसानों की भी यही कहानी है। पिछली बार, किसानों ने कहा था कि उन्हें ऐसे समय पराली जलाने के लिए कहा गया था, जब उपग्रह उस क्षेत्र से नहीं गुज़र रहा था। मुझे यह कहते हुए दुख हो रहा है कि 2018 से सुप्रीम कोर्ट ने व्यापक आदेश पारित किए हैं, और वे आपके सामने केवल लाचारी जताते हैं।” पराली का इस्तेमाल ईंधन बनाने के लिए हो सकता है? CJI ने पूछा इस पर CJI ने सवाल किया कि अधिकारी इस मुद्दे को सुलझाने के लिए दंडात्मक प्रावधानों पर विचार क्यों नहीं कर रहे हैं। उन्होंने कहा, "अगर कुछ लोग सलाखों के पीछे जाएंगे, तो इससे सही संदेश जाएगा। आप किसानों के लिए दंडात्मक प्रावधानों के बारे में क्यों नहीं सोचते? अगर पर्यावरण की रक्षा करने का आपका सच्चा इरादा है, तो फिर आप क्यों पीछे हट रहे हैं?" CJI ने आगे कहा, "किसान हमारे लिए खास हैं, और हम उनकी बदौलत खा रहे हैं… लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम पर्यावरण की रक्षा नहीं कर सकते।" सीजेआई बीआर गवई ने इस दौरान ये भू पूछा कि क्या जलाई जाने वाली पराली का इस्तेमाल ईंधन बनाने के लिए भी किया जा सकता है। उन्होंने कहा, “मैंने कुछ अखबारों में ऐसा पढ़ा है।” हर साल अक्टूबर-नवंबर में दिल्ली की हवा हो जाती है जहरीली बता दें कि पड़ोसी राज्य पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने के कारण साल अक्टूबर और नवंबर में दिल्ली की हवा जहरीली हो जाती है और प्रदूषण का स्तर खतरनाक स्थिति में पहुंच जाता है। किसान खेतों से पराली को हटाने के लिए उसे जला देते हैं। इसके विकल्प के तौर पर खेतों को साफ़ करने के लिए विशेष मशीनों का इस्तेमाल किया जाता है। किसानों का तर्क है कि ये विकल्प काफ़ी महंगे हैं। इसलिए पराली जलाने की घटनाएँ हर साल सामने आती रहती हैं, हालाँकि दर्ज मामलों में कमी आई है।

जबलपुर हाईकोर्ट के निर्देश पर नर्सिंग कॉलेज घोटाले में याचिकाकर्ता को मिला सीबीआई जांच डाटा

जबलपुर  जांच में उपयुक्त पाए गए नर्सिंग कॉलेज का डेटा सीबीआई की तरफ से जबलपुर हाईकोर्ट में पेश किया गया। हाईकोर्ट जस्टिस अतुल श्रीधरन तथा जस्टिस प्रदीप मित्तल के निर्देश पर सीबीआई ने जांच डेटा याचिकाकर्ता को प्रदान किया। याचिका पर अगली सुनवाई 28 अक्टूबर को निर्धारित की गई है। गौरतलब है कि प्रदेश में नर्सिंग कॉलेज की मान्यता से संबंधित फर्जीवाड़े के खिलाफ लॉ स्टूडेंट एसोसिएशन के अध्यक्ष विशाल बघेल ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी। हाईकोर्ट ने याचिका की सुनवाई करते हुए प्रदेश में संचालित नर्सिंग कॉलेजों की जांच सीबीआई को सौंपी थी। सीबीआई ने उपयुक्त, अनुपयुक्त तथा आंशिक कमी वाले कॉलेजों की सूची हाईकोर्ट में पेश की थी। फैकल्टी की मार्कशीट न्यायालय में प्रस्तुत की थी याचिका की सुनवाई के दौरान आवेदन पेश करते हुए याचिकाकर्ता की तरफ से बताया गया था कि सीबीआई जांच में उपयुक्त पाए गए एक नर्सिंग कॉलेज में कार्यरत फैकल्टी फर्जी है। सीबीआई ने जांच रिपोर्ट के आधार पर फैकल्टी की मार्कशीट न्यायालय में प्रस्तुत की थी। याचिकाकर्ता तथा सीबीआई की तरफ से प्रस्तुत की गई मार्कशीट अलग-अलग थी। जांच डेटा युगलपीठ के समक्ष प्रस्तुत याचिकाकर्ता की ओर से युगलपीठ को बताया गया था कि उक्त कॉलेज की फैकल्टी की मार्कशीट मप्र नर्सिंग काउंसलिंग के पोर्टल से उन्होंने निकाली है। युगलपीठ ने सीबीआई को निर्देशित किया था कि नर्सिंग कॉलेज की जांच रिपोर्ट का डेटा याचिकाकर्ता को प्रदान किया जाए। सीबीआई ने आदेश का पालन करते हुए जांच डेटा युगलपीठ के समक्ष प्रस्तुत किया। युगलपीठ के आदेश पर याचिकाकर्ता को उक्त डेटा प्रदान किया गया। याचिकाकर्ता की तरफ से अधिवक्ता आलोक बागरेचा ने पैरवी की। 

इंदौर में सोनोग्राफी सेंटर केस में दो डॉक्टरों को सजा, गर्भवती व डॉक्टरी साइन नहीं होने का मामला

इंदौर  इंदौर में जिला कोर्ट ने 2 डॉक्टरों को प्री कंसेप्शन एंड प्री नेटल डायग्नोस्टिक टेक्निक एक्ट (PCPNDT) के उल्लंघन करने के मामले में एक-एक साल के कारावास की सजा सुनाई है। मामला 14 साल पुराना है। इसमें अखबारों की खबरों के आधार पर जिला प्रशासन ने जांच कराई।  घोषणापत्र पर न तो गर्भवती महिला के हस्ताक्षर थे। न ही इस गंभीर एक्ट के पालन के फॉर्म पर दोनों जिम्मेदार डॉक्टरों के हस्ताक्षर किए थे। इसके सहित कई गड़बड़ियां पाई गई। इस पर जिला प्रशासन ने स्नेह नगर स्थित आइडियल मेडिकल सेंटर (सोनोग्राफी सेंटर) के 2 डॉक्टरों के खिलाफ कोर्ट की शरण ली थी। 14 साल बाद जिला कोर्ट ने दोनों डॉक्टरों को दोषी पाया। आरोपियों के नाम डॉ. राजू प्रेमचंदानी (62) निवासी निवास सर्वोदय नगर और डॉ. अजय मोदी (63) निवासी केसरबाग हैं। इन्हें एक-एक साल के कारावास के साथ, PCPNDT एक्ट की एक अन्य धारा में 3-3 माह का कारावास और 6-6 हजार रुपए के अर्थदंड से दंडित किया है। जानिए क्या है मामला 1 जून 2011 को इंदौर के अखबारों में एक महिला की सोनोग्राफी की गड़बड़ियों को लेकर खबर प्रकाशित थी। इसके बाद महिला ने आत्महत्या कर ली थी। तत्कालीन एडीएम नारायण पाटीदार द्वारा टीआई को एक पत्र लिखकर जानकारी मांगी कि महिला की सोनोग्राफी किस सेंटर पर हुई। 7 जून 2011 को डीएसपी मुख्यालय इंदौर द्वारा यह जानकारी दी गई कि महिला तिल्लौर बुजुर्ग की है और उसने 5 अप्रैल 2011 को आइडियल मेडिकल सेंटर पर सोनोग्राफी कराई थी। इसमें जानकारी के साथ सोनोग्राफी की रिपोर्ट्स भी भेजी। इसके बाद जिला प्रशासन ने 11 जून 2011 को वहां टीम भेजकर निरीक्षण कराया। तब टीम ने सेंटर के डायरेक्टर डॉ. राजू प्रेमचंदानी और डॉ. अजय मोदी की उपस्थिति में महिलाओं की सोनोग्राफी संबंधी रजिस्टर की जांच की गई जिसका पंचनामा बनाया गया। इस दौरान दोनों डॉक्टरों द्वारा सोनोग्राफी रजिस्टर पेश किए गए जिन्हें जब्त किया गया। ये मिली बड़ी गड़बड़ियां     जांच में पाया कि सेंटर PCPNDT एक्ट के तहत रजिस्टर्ड है और प्रत्येक माह की 5 तारीख तक गर्भवती महिलाओं की अल्ट्रा सोनोग्राफी रिपोर्ट और फॉर्म-F सक्षम प्राधिकारी PCPNDT एक्ट में कलेक्टर कार्यालय में प्रस्तुत किया जाना आवश्यक है।     इसमें आइडियल मेडिकल सेंटर की रिपोर्ट पेश की गई रिपोर्ट और फॉर्म-F नंबर 68,71 और 79 पर गर्भवती महिलाओं के घोषणापत्र पर हस्ताक्षर नहीं थे।     ऐसे ही फॉर्म-F नंबर 103 104 और 112 से 126 तक पर डॉ. राजू प्रेमचंदानी के हस्ताक्षर नहीं पाए गए।     एडीएम ने सेंटर को कारण बताओ सूचना नोटिस जारी किया था। 23 जून 2011 को दोनों डॉक्टरों ने जवाब पेश किया था।     24 जून 2011 को गठित जिला सलाहकार समिति की बैठक में सर्व समिति से निर्णय लिया कि महिला की जांच डॉ. अजय मोदी ने की थी लेकिन एक्ट के तहत का फॉर्म-F नहीं भरा गया।     इस कारण गर्भधारण पूर्व और निदान 1996 के नियम 9,10(01) का उल्‍लघंन पाया गया।     इसी प्रकार गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम के अनुसार ANC रजिस्टर मेंटेन नहीं किया जो धारा 29, 23 और 25 के तहत तहत दंडनीय अपराध पाया है।     दोनों डॉक्टरों के खिलाफ गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम 1994 की धारा 23 और 25 के तहत जिला कोर्ट में परिवाद लगाया गया।     लंबी सुनवाई चली जिसमें कोर्ट ने दोनों डॉक्टरों को एक-एक साल के कारावास की सजा सुनाई।     तत्कालीन एडीएम नारायण पाटीदार द्वारा टीआई को एक पत्र लिखकर जानकारी मांगी कि महिला की सोनोग्राफी किस सेंटर पर हुई। अब जानिए कब, क्या-क्या हुआ…     अप्रैल–मई 2011: तितलौर बुजुर्ग की एक गर्भवती महिला ने इंदौर के एक सोनोग्राफी सेंटर पर जांच करवाई थी, जिसमें संभवतः लिंग परीक्षण हुआ था।     1 जून 2011: इंदौर के अखबारों में महिला की आत्महत्या की खबर प्रकाशित हुई। खबर में उल्लेख था कि महिला ने एक सोनोग्राफी सेंटर में जांच करवाई थी, जिसके बाद वह तनाव में रहने लगी थी।     इसके बाद, जिला प्रशासन हरकत में आया और पुलिस से यह जानकारी मांगी गई कि महिला की सोनोग्राफी किस सेंटर पर हुई थी।     7 जून 2011: डीएसपी मुख्यालय ने बताया कि महिला ने 8/47, स्नेह नगर स्थित आइडियल मेडिकल सेंटर में सोनोग्राफी करवाई थी।     11 जून 2011: प्रशासन की टीम ने सेंटर का निरीक्षण किया। निरीक्षण के दौरान डायरेक्टर डॉ. राजू प्रेमचंदानी और डॉ. अजय मोदी की उपस्थिति में सोनोग्राफी रजिस्टर की जांच कर पंचनामा बनाया गया। रजिस्टर व अन्य दस्तावेज जब्त किए गए और दोनों डॉक्टरों से दस्तखत भी करवाए गए।     24 जून 2011: जिला सलाहकार समिति की बैठक में पाया गया कि महिला की जांच डॉ. अजय मोदी ने की थी, लेकिन PCPNDT एक्ट के तहत अनिवार्य फॉर्म-F नहीं भरा गया था। जांच में एक्ट के कई उल्लंघन पाए गए और दोनों डॉक्टरों की भूमिका स्पष्ट हुई।     25 सितंबर 2011: प्रशासन ने कोर्ट में परिवाद दायर कर सख्त कार्रवाई की मांग की और सभी दस्तावेज पेश किए।     23 जून 2017: 6 साल बाद, कोर्ट ने दोनों डॉक्टरों के खिलाफ आरोप तय किए और इसी दिन से साक्ष्य (इविडेंस) की प्रक्रिया शुरू हुई।     2 सितंबर 2025: कोर्ट ने बहस पूरी कर फैसला आरक्षित रखा।     16 सितंबर 2025: जिला अभियोजन अधिकारी (DPO) राजेंद्रसिंह भदौरिया ने फैसले की आधिकारिक जानकारी दी। साक्ष्यों और बयानों के आधार पर सजा तय     केस में 9 प्रमुख गवाह थे, जिनमें आईएएस अफसर, अपर कमिश्नर (राजस्व), कार्यकारी डायरेक्टर, डीएसपी, स्वास्थ्य विभाग के रिटायर्ड डायरेक्टर, उप सचिव (मप्र शासन) आदि शामिल थे।     पेश किए गए दस्तावेजों में शामिल थे     PCPNDT एक्ट से जुड़े आदेश,     कारण बताओ नोटिस व उत्तर,     दस्तावेजों का जब्ती व जांच पंचनामा,     सोनोग्राफी रिपोर्ट,     फॉर्म-F संबंधित रिकॉर्ड,     सेंटर का पंजीयन सर्टिफिकेट (2006–2011),     रैफरल स्लिप,     मशीन सील करने का पंचनामा,     राशि भुगतान की रसीदें आदि। डॉक्टरों ने पहले यह स्वीकार नहीं किया कि मृतक महिला ने उनके सेंटर पर सोनोग्राफी करवाई थी। अखबारों में प्रकाशित खबर … Read more

हाईकोर्ट का बड़ा फैसला, चंडीगढ़ के कॉलेज शिक्षकों को 65 साल तक नौकरी की मंजूरी

 चंडीगढ़  पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने चंडीगढ़ प्रशासन और काॅलेज शिक्षकों के बीच लंबे समय से चले आ रहे विवाद पर अपना विस्तृत फैसला सुनाया। मामला कॉलेजों में शिक्षकों की सेवानिवृत्ति आयु 58 वर्ष या 65 वर्ष होने को लेकर था। कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि शिक्षकों को 65 वर्ष तक सेवा में बने रहने का लाभ मिलेगा। जैसा कि पहले जोगेंद्र पाल सिंह केस में तय किया गया था । यह विवाद तब शुरू हुआ जब केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण ने 21 मार्च 2023 को आदेश दिया था कि शिक्षकों को 65 वर्ष तक सेवा जारी रखने का अधिकार है। चंडीगढ़ प्रशासन ने इस आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। प्रशासन का तर्क था कि सुप्रीम कोर्ट के जगदीश प्रसाद शर्मा बनाम बिहार राज्य (2013) के फैसले को सही दृष्टिकोण से लागू नहीं किया गया और 58 वर्ष की सीमा ही मान्य है। दूसरी ओर, शिक्षकों ने दलील दी कि उन्हें उनके सहयोगियों की तरह समान लाभ मिलना चाहिए, जिन्हें पहले ही 65 वर्ष तक सेवा का अधिकार मिल चुका है। यदि कुछ शिक्षकों को 65 वर्ष तक काम करने दिया जाए और कुछ को 58 पर रिटायर किया जाए तो यह भेदभाव और कानून की भावना के खिलाफ होगा। हाईकोर्ट ने कहा कि 29 मार्च 2022 की अधिसूचना से 1 अप्रैल 2022 से चंडीगढ़ में शिक्षकों की सेवानिवृत्ति आयु 65 वर्ष कर दी गई है। इसलिए जो शिक्षक पहले रिटायर हो गए थे और बाद में न्यायाधिकरण के आदेश पर वापस सेवा में लौटे, उन्हें भी 65 वर्ष तक काम करने का अवसर मिलना चाहिए। हालांकि, कोर्ट ने शिक्षकों की उस मांग को खारिज कर दिया जिसमें उन्होंने 58 वर्ष से 65 वर्ष की उम्र तक के बीच के पूरे वेतन-भत्तों के बकाये की मांग की थी। कोर्ट ने कहा कि इस दौरान शिक्षक पेंशन और रिटायरमेंट लाभ ले रहे थे, इसलिए उन्हें दोहरा लाभ नहीं दिया जा सकता। कोर्ट ने यह जरूर माना कि उन्हें वेतनवृद्धि और इंक्रीमेंट्स का लाभ मिलेगा, ताकि उनकी वेतन-फिक्सेशन सही हो सके। कोर्ट ने अपने आदेश में यह भी स्पष्ट किया कि चूंकि प्रशासन ने पहले ही कैट के आदेश को लागू कर दिया है और कई शिक्षक रिटायरमेंट लाभ लौटाकर वापस सेवा में जुड़ चुके हैं, ऐसे में अब इस फैसले से पीछे हटना न्यायोचित नहीं होगा। हाईकोर्ट ने कहा समान परिस्थितियों में कर्मचारियों को अलग-अलग मानकों से नहीं तौला जा सकता। इस आदेश से चंडीगढ़ के कई शिक्षकों को बड़ी राहत मिली है।  

मारपीट, एक्सीडेंट या एसिड अटैक: अब चोट के मामलों में जरूरी होंगे फोटो, कोर्ट में पेश करना अनिवार्य

 भोपाल मारपीट, दुर्घटना, एसिड अटैक या किसी भी कारण से होने वाले चोट के मामलों में अब फोटो अनिवार्य साक्ष्य होंगे। पुलिस और मेडिको–लीगल केस (एमएलसी) बनाने वाले डॉक्टर को घायल की चोटों के फोटो लेना जरूरी कर दिया गया है। इन फोटो को न्यायालय में अभियोजन पक्ष की ओर से पुख्ता प्रमाण के तौर पर प्रस्तुत किया जा सकेगा। पुलिस मुख्यालय ने इस संबंध में भोपाल और इंदौर के पुलिस आयुक्त, सभी जिलों, रेल और अजाक के पुलिस अधीक्षकों को निर्देश जारी किए हैं। साथ ही, स्वास्थ्य संचालनालय की ओर से सभी सीएमएचओ को पत्र भेजा जाएगा ताकि एमएलसी तैयार करने वाले डॉक्टर इस नियम का पालन करें। अभी तक फोटो नहीं लेते थे अब तक डॉक्टर अपनी रिपोर्ट में केवल घाव की लंबाई और गहराई लिखते थे, लेकिन फोटो नहीं लेते थे। इस व्यवस्था की आवश्यकता तब महसूस हुई जब झाबुआ जिले के मारपीट मामले में जुलाई 2025 में हाई कोर्ट इंदौर खंडपीठ ने चोट के फोटो न होने पर आपत्ति जताई थी। उस मामले में न तो घायलों को अस्पताल ले जाने वाले पुलिसकर्मी ने फोटो लिए थे और न ही डॉक्टर ने। इसके बाद पुलिस मुख्यालय की सीआईडी शाखा ने आदेश जारी कर दिया कि हर चोट के फोटो सुरक्षित रखे जाएं ताकि आवश्यकता पड़ने पर उन्हें कोर्ट में प्रस्तुत किया जा सके।