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रेलवे ने लगाई नई मिसाल, पटरियों के बीच सोलर पैनल से होगी बिजली की बचत

नई दिल्ली भारतीय रेलवे (Indian Railway) न केवल यात्रियों की सुरक्षा और सुविधा के लिए लगातार कदम उठा रही है, वहीं दूसरी ओर बिजली की बचत और पर्यावरण संरक्षण के लिए भी नए तरीके अपना रही है. इसी क्रम में रेलवे को एक बड़ी उपलब्धि हासिल हुई है. रेलवे मिनिस्ट्री (Ministry Of Railway) की ओर से एक सोशल मीडिया (Social Media) पोस्ट में जानकारी देते हुए बताया गया है कि बनारस लोकोमोटिव वर्क्स ने रेल की पटरियों के बीच भारत का पहला 70 मीटर लंबा रिमूवेबल सोलर पैनल सिस्टम (Solar Panal System On Track) स्थापित किया है.  70 मीटर ट्रैक पर 28 सोलर पैनल  मिनिस्ट्री ऑफ रेलवे की ओर से सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स (पहले Twitter) पर एक पोस्ट के जरिए भारतीय रेलवे ने इस ऐतिहासिक उपलब्धि के बारे में बताया गया है. पोस्ट में जानकारी दी गई है कि वाराणसी के बनारस लोकोमोटिव वर्क्स ने रेलवे ट्रैक पर पटरियों के बीच भारत का पहला 70 मीटर लंबा रिमूवेबल सोलर पैनल सिस्टम स्थापित कर लिया है. इसमें 28 Sola Panal लगाए गए हैं, जिनकी क्षमता 15 किलोवाट पीक है.  बिजली की बचत और पर्यावरण संरक्षण रेल मंत्रालय की ओर से Indian Railway के इस कदम को हरित और टिकाऊ रेल परिवहन की दिशा में एक मील का पत्थर करार दिया गया है. इस संबंध में जारी रिपोर्ट के मुताबिक, रेलवे की यह पहल न केवल बिजली की बचत करेगी और एनर्जी लागत में कमी आएगी, बल्कि पर्यावरण संरक्षण में भी मददगार साबित होगी.  सबसे खास बात ये है कि रेल की पटरियों के बीच में लागए गए इन सोलर पैनल्स को आसानी से हटाया और फिर से दोबारा लगाया भी जा सकता है. दरअसल, रेलवे ट्रैक पर अक्सर मेंटिनेंस काम चलता रहता है, ऐसे में इन रिमूवेबल Solar Panal को वहां काम करने वाले कर्मचारी आसानी से बाहर निकाल सकते हैं और काम खत्म होने के बाद ट्रैक पर वापस लगा सकते हैं.  रेल मंत्रालय ने शेयर कीं तस्वीरें रेलवे मिनिस्ट्री की ओर से ट्रैक पर सोलर पैनल सिस्टम स्थापित करने की जानकारी शेयर किए जाने के साथ ही इसकी तमाम तस्वीरें भी शेयर की गई हैं, जिनमें देखने को मिल रहा है कि बनारस लोकोमोटिव वर्क्स (BLW) ने किस तक रेल की पटरियों की बीच पत्थरों के ऊपर सोलर पैनल लगाए हैं. एक अन्य तस्वीर में इनके ऊपर से ट्रेन का इंजन गुजरता हुआ भी नजर आ रहा है. निश्चित तौर पर रेलवे का ये कदम अन्य सेक्टर्स को भी ग्रीन और क्लीन एनर्जी की दिशा में कदम बढ़ाने के लिए प्रेरणादायक है. 

एम.पी. ट्रांसको की सख्ती: बड़वानी में अवैध निर्माण पर 24 नोटिस जारी, सुरक्षा की जाए सुनिश्चित

बड़वानी मध्यप्रदेश पावर ट्रांसमिशन कंपनी (एम.पी. ट्रांसको) ने बड़वानी शहर में एक्स्ट्रा हाईटेंशन ट्रांसमिशन लाइनों के समीप विद्युत सुरक्षा मानकों की अनदेखी कर बने असुरक्षित और अवैध निर्माणों को हटाने के लिए मुहिम शुरू की है। प्रतिबंधित कॉरीडोर 27 मीटर की सीमा के अंदर बने इन निर्माणों से मानव जीवन को गंभीर खतरा है तथा दुर्घटनाओं की आशंका बनी रहती है। इन क्षेत्रों में अवैध निर्माण हटाने के लिए 24 व्यक्तियों को नोटिस जारी किये गए हैं। एम पी ट्रांसको बड़वानी के अभियंता वीर सिंह भूरिया ने बताया कि मुहिम के पहले चरण में लोगों को समझाइश दी गई थी, अब संबंधितों को नोटिस देकर निर्माण हटाने के लिए कहा गया है। कर्मचारी पब्लिक ऐड्रेस सिस्टम द्वारा हाईटेंशन लाइन से निर्धारित सुरक्षित दूरी बनाए रखने की अपील कर रहे हैं और लोगों को संभावित खतरों के प्रति सतर्क किया जा रहा है। इन क्षेत्रों में जारी किए गए नोटिस बड़वानी क्षेत्र में एम.पी. नगर, तलुन, अंजद, न्यू फिल्टर के पास कसरावद रोड आदि स्थानों पर 132 के.व्ही. वोल्टेज की बड़वानी- निमरानी ट्रांसमिशन लाइन के समीप सबसे कम सुरक्षा दूरी में निर्माण किए गए हैं। इन्हें हटाने के लिए एम.पी. ट्रांसको द्वारा संबंधित व्यक्तियों को कुल 24 नोटिस जारी किए गए हैं। 27 मीटर का सुरक्षित कॉरीडोर क्यों आवश्यक? केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण की गाइडलाइन्स के अनुसार 132 के.व्ही. क्षमता की ट्रांसमिशन लाइनों के 27 मीटर कॉरीडोर की न्यूनतम सुरक्षित दूरी में कोई निर्माण नहीं किया जाना चाहिए। यह दूरी इसलिए तय की गई है क्योंकि हवा के दबाव से कंडक्टर (विद्युत तार) झूल सकता है, जिसे स्विंग कहा जाता है। इस स्विंग को ध्यान में रखते हुए ही दुर्घटनाओं से बचाव के लिए यह मानक निर्धारित है। घरेलू बिजली से 600 गुना अधिक घातक ट्रांसमिशन लाइनों के नीचे बने अवैध निर्माण घरेलू बिजली से 600 गुना से अधिक खतरनाक साबित हो सकते हैं। इससे न केवल जिले की विद्युत आपूर्ति लंबे समय तक बाधित होने का खतरा है, बल्कि आम नागरिकों के जीवन पर भी बड़ा संकट होता है। सुरक्षा की दृष्टि से एम.पी. ट्रांसको ने नागरिकों से अपील की है कि वे मानकों के अनुरूप ही निर्माण करें और ट्रांसमिशन लाइनों से निर्धारित दूरी बनाए रखें।  

UAE के बाद अब कुवैत भी करेगा बड़ा बदलाव, विदेशी जजों की छुट्टी 2030 तक

नई दिल्ली मध्य-पूर्व का इस्लामिक देश कुवैत संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की राह पर चल पड़ा है. जिस तरीके से यूएई हर क्षेत्र में अमीरातीकरण (नौकरियों में अपने नागरिकों की संख्या बढ़ाना) को बढ़ावा दे रहा है, कुवैत ने भी ऐसी ही पहल शुरू की है. कुवैत के न्याय मंत्री, काउंसलर नासिर अल-सुमैत ने कहा है कि देश की न्यापालिका 2030 तक पूरी तरह से 'Kuwaitized' हो जाएगी. इसका मतलब है कि 2030 तक सभी न्यायिक पदों पर कुवैती लोग होंगे, विदेशियों को जज और सभी न्यायिक पदों से हटा दिया जाएगा.कुवैत की सरकार ने यह फैसला स्थानीय प्रतिभाओं को अवसर देने, देश के पेशेवरों को मजबूती देने और कानूनी क्षेत्र को आधुनिक बनाने के लिए किया है.  कुवैत अपने न्याय विभागों में बदलाव कर रहा है जिसके तहत ये फैसला लिया गया है. इसके साथ ही स्वतंत्रता और दक्षता को बढ़ावा देने के लिए विधायी सुधार भी किए जा रहे हैं. मध्य-पूर्वी देश के प्राइवेट और पब्लिक सेक्टर, विशेष रूप से तेल और तकनीकी क्षेत्र से कहा जा रहा है कि वो देश के नागरिकों को अधिक से अधिक संख्या में नौकरी दें. पीपुल्स मैटर्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, मंत्री अल-सुमैत ने कहा कि सभी न्यायिक विभागों के कुवैतीकरण की प्रक्रिया चल रही है जहां विदेशियों की जगह योग्य और कुशल कुवैती प्रोफेशनल्स की भर्ती की जा रही है. उन्होंने कहा, 'हम इस मामले में फैसला ले चुके हैं और 2030 तक 100% कुवैतीकरण का हमारा टार्गेट है.' कुवैत का न्याय मंत्रालय यह सुनिश्चित करने की भी पूरी कोशिश में है कि विदेशियों की जगह होने वाली सभी नियुक्तियां और प्रमोशन कुवैती उम्मीदवारों के बीच गुणवत्ता, प्रशिक्षण और काम को लेकर उनकी तत्परता को प्राथमिकता दें. कुवैत के इन सेक्टरों का पहले ही हो चुका है कुवैतीकरण कुवैत के कई सेक्टर्स में कुवैतीकरण बहुत पहले से होता आ रहा है. कुवैत के ऑयल सेक्टर के सभी प्रमुख इंजिनियरिंग और टेक्निकल भूमिकाओं में नागरिकों को जगह दी गई है. 2002 में शुरू हुए Manpower Contractors Kuwaitization Initiative के तहत तेल क्षेत्र में कुवैती नागरिकों को उचित वेतन, लाभ और स्थिर रोजगार दिया जाता है. 2024 तक, कुवैत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन (केपीसी) और उसकी सहायक कंपनियों ने कथित तौर पर शीर्ष पदों पर 100% राष्ट्रीय स्टाफिंग हासिल कर ली है यानी सभी शीर्ष पदों पर कुवैत के योग्य नागरिकों को रखा गया है. इन कंपनियों ने कुवैतियों के लिए मुश्किलों को दूर करने, स्थायी नौकरी सुनिश्चित करने और विदेशी स्टाफ पर निर्भरता को धीरे-धीरे खत्म करने के लिए अपने 100% टार्गेट को हासिल कर लिया है. कुवैत में विदेशियों को नौकरियां मिलनी हुई मुश्किल कुवैत में विदेशियों को नौकरियां मिलनी अब मुश्किल होती जा रही हैं. जनशक्ति के लिए सार्वजनिक प्राधिकरण ने चिकित्सा, इंजीनियरिंग, कानून, शिक्षा, अकाउंट्स और फाइनेंस जैसे तकनीकी पदों पर विदेशियों की भर्ती काफी सख्त कर दी है. ऐसा इसलिए क्योंकि इन नौकरियों में कुवैत के नागरिकों को प्राथमिकता दी जा रही है. पहले जहां इन क्षेत्रों में विदेशियों के लिए नौकरी हासिल करना आसान था, वहीं, अब विदेशी उम्मीदवारों को इन नौकरियों के लिए एक ऑनलाइन पेशेवर दक्षता परीक्षा पास करनी पड़ती है. इसके बाद भी आधिकारिक निकायों और विदेश स्थित कुवैती दूतावासों के जरिए, आमतौर पर तीन से पांच सालों के लिए गहन शैक्षणिक और वर्क एक्सपीरिएंस वेरिफिकेशन से गुजरना होता है. भारतीयों पर क्या होगा कुवैतीकरण का असर? गल्फ न्यूज की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 31 दिसंबर 2024 तक कुवैत में लगभग 10 लाख 7 हजार भारतीय नागरिक रह रहे थे, जो कुल जनसंख्या का लगभग 20% है. 2025 के हालिया आंकड़े बताते हैं कि कुवैत की 5,098,000 की आबादी में 70% लोग प्रवासी हैं, जिनमें से लगभग 29% प्रवासी भारतीय हैं. साल 2025 की पहली तिमाही की लेबर रिपोर्ट में बताया गया है कि कुवैत में लगभग 884,000 भारतीय कार्यरत हैं. बाकी के भारतीय कुवैत में काम करने वालों के परिवार, आश्रित लोग या फिर छात्र हैं. कुवैत में इतनी बड़ी भारतीय आबादी को देखते हुए कुवैतीकरण का सबसे बड़ा असर भारत पर ही होने वाला है. इससे कुवैत में कुशल और गैर-कुशल भारतीयों को नौकनी मिलने में कठिनाई बढ़ेगी. 

बीजेपी नेतृत्व में बड़ा बदलाव, अगला अध्यक्ष हो सकता है उत्तर भारत से

नई दिल्ली बीजेपी का अगला अध्यक्ष कौन होगा? फिलहाल इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं से जब इस सवाल का जवाब पूछा जाता है, तो वे कहते हैं कि अध्यक्ष तो बीजेपी का ही होगा। फिलहाल नाम नहीं बता सकते। लेकिन अब चर्चा है कि बीजेपी का अगला अध्यक्ष 'उत्तर' से हो सकता है। अब सवाल उठता है कि उत्तर से ही अध्यक्ष क्यों होगा, तो आइये जानते हैं इसके पीछे की सियासत। सीपी राधाकृष्णन की उम्मीदवारी में ही सवाल का जवाब दरअसल, रविवार को बीजेपी ने उपराष्ट्रपति पद के लिए साउथ ( तमिलनाडु ) से आने वाले ओबीसी के बड़े नेता सीपी राधाकृष्णन को अपना उम्मीदवार बनाया है। सहयोगी दलों ने भी राधाकृष्णन को समर्थन किया है। राधाकृष्णन इस वक्त महाराष्ट्र के राज्यपाल हैं। अब सबकी नजर इस पर है कि पार्टी का अगला अध्यक्ष कौन होगा? सीपी राधाकृष्णन की उम्मीदवारी में ही इस सवाल का जवाब छिपा है। क्षेत्रीय संतुलन का रखा जाएगा ख्याल बीजेपी के नए अध्यक्ष में क्षेत्रीय संतुलन का ख्याल रखा जाएगा। ठीक उसी तरह, जिस तरह सीपी राधाकृष्णन के चयन से पार्टी ने क्षेत्रीय संतुलन का ख्याल रखा है। मौजूदा अध्यक्ष जेपी नड्डा उत्तर भारत से हैं। अब चर्चा हो रही है कि नया अध्यक्ष भी उत्तर भारत से ही होगा। इसको लेकर कई कयास भी लगाए जा रहे हैं। हालांकि बीजेपी अपने अप्रत्याशित फैसलों के लिए जानी जाती है। अंत में कुछ भी हो सकता है। उत्तर भारत ही क्यों? दरअसल, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू पूर्वी भारत से हैं। उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार सीपी राधाकृष्णन दक्षिण भारत से आते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पश्चिम भारत से आते हैं, और संसद में उत्तर भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऐसे में अनुमान लगाया जा रहा है कि बीजेपी का अगला अध्यक्ष उत्तर भारत से हो सकता है। इन नामों की है चर्चा नए अध्यक्ष के लिए जिन नामों की सबसे अधिक चर्चा है, उनमें मनोहर लाल खट्टर, भूपेंद्र यादव और केशव प्रसाद मौर्य प्रमुख हैं, जो सभी उत्तर भारत से आते हैं। यही कारण है कि सीपी राधाकृष्णन की उम्मीदवारी के बाद कयास लग रहे हैं कि नया अध्यक्ष उत्तर भारत से हो सकता है। जातीय समीकरण को लेकर भी चर्चा बीजेपी के नए अध्यक्ष के चयन में क्षेत्र के साथ-साथ जातीय समीकरणों को लेकर भी कयास लग रहे हैं। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू आदिवासी समुदाय से आती हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ओबीसी हैं, और उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार सीपी राधाकृष्णन भी ओबीसी समुदाय से आते हैं। ऐसे में अनुमान है कि बीजेपी का नया अध्यक्ष सामान्य वर्ग से हो सकता है। यही कारण है कि नया अध्यक्ष किस क्षेत्र और जाति से होगा, इस पर चर्चा जोरों पर है।

राज्यपाल पटेल 20 अगस्त को मंडला में आयुष विभाग की कार्यशाला में होंगे शामिल, आयुष मंत्री परमार भी उपस्थित

भोपाल  राज्यपाल मंगुभाई पटेल 20 अगस्त को मंडला जिले के सेमर खापा में आयुष विभाग द्वारा "परंपरागत चिकित्सा का स्वास्थ्य संवर्धन में योगदान एवं सिकल सेल एनीमिया प्रबंधन" विषय पर आयोजित एक दिवसीय कार्यशाला में शामिल होंगे। कार्यशाला में उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा एवं आयुष मंत्री इन्दर सिंह परमार भी शामिल होंगे। कार्यशाला में जनजातीय कार्य, लोक परिसम्पत्ति प्रबंधन, भोपाल गैस त्रासदी राहत एवं पुनर्वास मंत्री डॉ. कुँवर विजय शाह, पंचायत, ग्रामीण विकास एवं श्रम मंत्री प्रहलाद सिंह पटेल, लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी मंत्री श्रीमती संपतिया उइके, कुटीर एवं ग्रामोद्योग राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) एवं मंडला जिले के प्रभारी मंत्री दिलीप जायसवाल भी उपस्थित रहेंगे। एकदिवसीय यह कार्यशाला मंडला जिले के सेमरखापा स्थित एकलव्य विद्यालय परिसर के ऑडिटोरियम में प्रातः10.30 बजे आयोजित होगी। प्रदेश में पारंपरिक चिकित्सा पद्धति के माध्यम से जनस्वास्थ्य को प्रोत्साहित करने एवं क्षेत्र-विशिष्ट स्वास्थ्य चुनौतियों के समाधान के लिए यह कार्यशाला आयोजित की गई है। कार्यशाला में मंडला एवं समीपवर्ती जिलों के जनजातीय क्षेत्रों में सिकल सेल एनीमिया की व्यापकता एवं पारंपरिक वैद्यों की सक्रिय भूमिका को दृष्टिगत रखते हुए व्यापक विचार-विमर्श होगा। कार्यशाला में आयुर्वेदिक चिकित्सकों के अनुभव साझा किए जाएंगे एवं उनके ज्ञान का संवर्द्धन भी किया जाएगा।  

महाशीर का भारी नुकसान, मध्यप्रदेश की नदी में अब मिलेगी केवल छोटी मछली

भोपाल  मध्यप्रदेश की पहचान बन चुकी महाशीर मछली अब संकट में है. यह वही मछली है जिसे 2011 में राज्य मछली का दर्जा दिया गया था और जिसे लोग “टाइगर फिश” के नाम से भी जानते हैं. कभी नर्मदा में 40 किलो तक वज़न और 7 फीट लंबाई वाली यह मछली पाई जाती थी, लेकिन अब इसका वजन घटकर सिर्फ 4 किलो और लंबाई 2 फीट तक रह गई है. महाशीर विलुप्त की कगार पर, महज 2 फीसदी ही बची  नर्मदा में पाई जाने वाली राज्य मछली महाशीर पर संकट मंडरा रहा है। स्वच्छ जल में रहने वाली महाशीर नर्मदा में बढ़ते प्रदूषण, पर्यावरणीय संकट, अवैध उत्खनन जैसी समस्याओं के कारण घटती जा रही है। नए आंकड़ों के अनुसार नर्मदा में इसकी संख्या 30 प्रतिशत से घटकर 2 प्रतिशत हो गई है। महाशीर ताजे और साफ पानी में ही पनपती है। पिछले कुछ वर्षों में नर्मदा में बढ़ते प्रदूषण के कारण इसकी संख्या तेजी से घटी है। इसमें सीवेज का पानी सबसे बड़ा कारण है। विशेषज्ञों के अनुसार नर्मदा से अंधाधुंत रेत उत्खनन से नदी की धार टूट रही है। नदी में प्राकृतिक रूप से आने वाले जल की मात्रा लगातार घटी है। नदी पर बांधों के निर्माण जैसे कारणों से इस मछली की संख्या तेजी से घटी है। मछली घटने से जल जैविक स्थिति होगी प्रभावित नर्मदा में महाशीर मछली की पर्यावरण को संतुलित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जिस पानी में मछली न हो उसकी जल जैविक स्थिति सामान्य नहीं रहती। वैज्ञानिकों के अनुसार जलस्रोतों में मछली जीवन सूचकांक है, केन्द्रीय अंतरस्थलीय माित्स्यकीय अनुसंधान केन्द्र कोलकाता के अनुसार नर्मदा में महाशीर मछली 30 प्रतिशत से घटकर 2 प्रतिशत हो गई है। 2011 में मिला राज्य मछली का दर्जा वैज्ञानिकों के अनुसार जैव विविधता के लिहाज से नर्मदा में महाशीर का होना बहुत जरूरी है। 26 सितम्बर 2011 में महाशीर को राज्य में संरक्षण प्रदान कर स्टेट फिश घोषित किया गया। वर्ष 2012 में अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (आईयूसीएन) ने महाशीर को विलुप्त प्राय घोषित किया है। नदी को साफ रखने में अहम भूमिका इस मछली की खासियत यह है कि ये पत्थरों में लगने वाली काई और पानी की गंदगी खाकर नदी को साफ रखने में अहम भूमिका निभाती है। मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने आंकलन कर कई स्थानों पर नर्मदा जल "ए" ग्रेड और बिना किसी उपचार के पीने योग्य बताया गया है। लेकिन ऐसे स्थानों पर भी जल में महाशीर का अस्तित्व मुश्किल में है। विशेषज्ञों के अनुसार अगर जल वाकई साफ होता तो महाशीर के अंडे पानी में जरूर नजर आते। यह खुलासा जबलपुर स्थित वेटरनरी यूनिवर्सिटी के रिसर्चर ने किया है. कैसे घट गई महाशीर मछली? पहले नर्मदा में महाशीर की आबादी करीब 20% थी. अब यह घटकर सिर्फ 1% रह गई है. लंबाई 7 फीट से घटकर 1.5 से 2 फीट. वजन 40 किलो से घटकर 2-4 किलो. कहां और कैसे हुई स्टडी? रिसर्चर ने “स्टडी ऑन द ब्रीडिंग ग्राउंड ऑफ महाशीर इन नर्मदा रिवर ऑफ जबलपुर डिस्ट्रिक्ट” विषय पर अध्ययन किया. रिसर्च नर्मदा नदी के चार घाटों – गौरी घाट, तिलवारा घाट, लम्हेटा घाट और भेड़ाघाट – में किया गया. करीब 25 किलोमीटर लंबे एरिया में मछलियों की लंबाई, वजन और ब्रीडिंग पैटर्न पर रिसर्च की गई. 25 मछुआरों से ली मदद अध्ययन के दौरान 25 से ज्यादा मछुआरों से जानकारी जुटाई गई. मछुआरों ने बताया कि महाशीर अभी भी इन घाटों पर ब्रीडिंग कर रही है, लेकिन उसका साइज़ और वजन पहले जैसा नहीं है. घटने की मुख्य वजहें फिशरी साइंस कॉलेज जबलपुर के डीन ने बताया कि— अवैध खनन से नर्मदा का प्राकृतिक आवास नष्ट हो गया. मछलियों को पर्याप्त भोजन नहीं मिल रहा. लगातार घटते संसाधनों की वजह से उनका वजन 2-4 किलो और लंबाई 1.5 से 2 फीट तक सीमित हो गई है. क्यों चिंता की बात? महाशीर मछली को “नदी की शान” कहा जाता है. इसका आकार और वजन घटना इस बात का संकेत है कि नर्मदा नदी का इकोसिस्टम खतरे में है. विशेषज्ञों का मानना है कि अगर अवैध खनन और प्रदूषण पर रोक नहीं लगी तो आने वाले समय में यह मछली विलुप्त भी हो सकती है. नर्मदा को रखती है स्वच्छ बड़वाह वन क्षेत्र में महाशीर की कैप्टिव ब्रीडिंग कराने के लिए नदी जैसा स्ट्रक्चर बनाया गया है। यहां पर देश में पहली बार महाशीर की ब्रीडिंग की गई, जो सफल भी रही। अब इसकी ब्रीडिंग के लिए भोपाल के केरवा और कोलार में इसकी संभावनाओं की तलाश की जा रही है। यह मछली प्राकृतिक रूप से पानी को साफ करने का काम करती है। नर्मदा को स्वच्छ रखने और प्रदूषण को नियंत्रित करने में भी महाशीर अहम भूमिका निभाती है। इसलिए विलुप्ति की कगार पर जैव विविधता बोर्ड के पूर्व सदस्य सचिव आर श्रीनिवास मूर्ति ने बताया महाशीर बहती नदी और राफ्टिंग वाली जगह अंडे देती है। इन्हें अंडे देने के लिए अनुकूल स्थान नहीं मिल रहा। शिकार, रेत का अवैध उत्खनन, पानी की धाराओं का खत्म होना भी इसके विलुप्त होने का कारण है।

खतरे में मिडिल क्लास! अर्थव्यवस्था में गहराते संकट की बड़ी चेतावनी

नई दिल्ली क्या मिडिल क्साल (Middle Class) कम खर्च कर रहा है? क्या उनके पास पैसा खत्म हो रहा है? ये हम नहीं कह रहे, बल्कि एक्सपर्ट कुछ ऐसी ही चेतावनी दे रहे हैं. मार्सेलस इन्वेस्टमेंट मैनेजर्स के सौरभ मुखर्जी ने एक लंबे चौड़े ब्लॉग में बताया कि भारतीय कॉर्पोरेट मुनाफा लड़खड़ा रहा है और इस संकट में अहम रोल मध्यम वर्ग निभा रहा है. उन्होंने कहा कि दिवाली (Diwali) 2023 के बाद से ही भारतीय कंपनियों की इनकम ग्रोथ में भारी गिरावट दर्ज की गई है, जिसका बड़ा कारण खपत में आई कमी है और इसकी वजह यह है कि मध्यम वर्ग के भारतीयों के पास पैसे खत्म हो रहे हैं.  भारत का कॉर्पोरेट मुनाफ़ा लड़खड़ा रहा है और इस संकट की जड़ में मध्यम वर्ग हो सकता है।मार्सेलस इन्वेस्टमेंट मैनेजर्स के ने एक ब्लॉग में चेतावनी दी है कि सफेदपोश रोज़गार सृजन में गिरावट, वास्तविक मज़दूरी में कमी और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) का उदय, उस मध्यम वर्ग के इंजन को कमज़ोर कर रहे हैं जिसने लंबे समय से भारत की विकास गाथा को गति दी है।  दिवाली 2023 के बाद से, भारतीय कंपनियों की आय वृद्धि में भारी गिरावट आई है, जिसकी वजह खपत में गिरावट है। इसकी वजह यह है कि मध्यम वर्ग के भारतीयों के पास पैसे खत्म हो रहे हैं। आरबीआई के आंकड़े बताते हैं कि वित्त वर्ष 2024 में जीडीपी के हिस्से के रूप में घरेलू बचत 50 साल के निचले स्तर पर आ गई है, जो आखिरी बार 1977 में देखा गया था। वे लिखते हैं, "होली 2024 तक, मध्यम वर्ग की ऊर्जा खत्म हो चुकी होगी।" मंदी हर जगह दिखाई दे रही है। खपत, जो सकल घरेलू उत्पाद का 60% हिस्सा है, 2021-23 के "बदला लेने वाले खर्च" के दौर के खत्म होने के बाद से कम हो गई है। एसयूवी, आवास और यात्रा में कभी उछाल आया था; अब मांग कम हो रही है। कॉर्पोरेट आय भी इसी राह पर चल रही है — निफ्टी कंपनियों ने वित्त वर्ष 2025 में सबसे तेज़ गिरावट दर्ज की है। नौकरियाँ एक और भी भयावह कहानी बयां करती हैं। 2020 से पहले एक दशक तक, सफेदपोश नौकरियाँ हर छह साल में दोगुनी होती थीं। वित्त वर्ष 2020 से, यह वृद्धि दर घटकर केवल 3% वार्षिक रह गई है – यानी अब नौकरियों को दोगुना होने में 24 साल लगेंगे। मध्यम वर्ग के रोज़गार की रीढ़, आईटी, सॉफ्टवेयर और रिटेल, स्थिर हो गए हैं। स्वचालन इस गिरावट को और तेज़ कर रहा है। मुखर्जी बताते हैं कि कैसे भारतीय आईटी दिग्गज खुलेआम कर्मचारियों की संख्या में कटौती कर रहे हैं। टीसीएस के सीईओ के. कृतिवासन ने कहा कि जुलाई 2025 में एआई के विस्तार के साथ कंपनी अपने कर्मचारियों की संख्या में 2% (लगभग 12,000 नौकरियाँ) की कटौती करेगी। एचसीएल टेक के सी. विजयकुमार ने आगे कहा कि लक्ष्य "आधे कार्यबल के साथ राजस्व को दोगुना करना" है। आय में कमी भी उतनी ही चिंताजनक है। निफ्टी 50 कंपनियों पर मार्सेलस के विश्लेषण से पता चलता है कि पिछले आठ सालों में, कर्मचारियों का औसत वेतन मुद्रास्फीति के साथ तालमेल बिठाने में विफल रहा है। 2016 से पहले के दौर के विपरीत, जब वेतन कम से कम बढ़ती लागत के बराबर होता था, आज के सफेदपोश कर्मचारी वास्तविक रूप से गरीब हैं। भारत के 4 करोड़ सफेदपोश कमाई करने वालों के लिए — जो अपने खर्च से लगभग 20 करोड़ नौकरियों का सृजन करते हैं — यह एक ख़तरे की घंटी है। मुखर्जी चेतावनी देते हैं कि जब तक वेतन और रोज़गार सृजन में सुधार नहीं होता, भारत में मध्यम वर्ग की लंबे समय तक तंगी बनी रहेगी, जिससे उसकी आर्थिक गति पर असर पड़ सकता है। मिडिल क्लास के इंजन को रोक रहे 3 कारण सौरभ मुखर्जी के मुताबिक, इस संकट के पीछे तीन बड़े कारणों को बताया है और कहा है कि सफेदपोश रोजगार के अवसरों में गिरावट, वास्तविक मजदूरी में कमी और एआई का बढ़ता दायरा, मध्यम वर्ग के इंजन को कमजोर करने में अहम रोल निभा रहे हैं, जिससे लॉन्गटर्म से भारत के डेवलपमेंट को तेजी मिली है. उन्होंने अपने ब्लॉग में कहा कि कंपनियों की खपत घट रही है, क्योंकि मिडिल क्लास भारतीयों के पास पैसे खत्म हो रहे हैं.  घरेलू बचत 5 दशक में सबसे कम मुखर्जी ने भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा कि वित्त वर्ष 2024 में जीडीपी (GDP) के हिस्से के रूप में घरेलू बचत 50 साल के निचले स्तर पर आ गई है, जो आखिरी बार 1977 में देखने को मिली थी. उन्होंने आगे कहा कि मंदी (Recession) हर जगह दिखाई दे रही है. खपत, जो जीडीपी का 60% हिस्सा है, 2021-23 के के बाद से कम हो गई है. बात SUV की हो या फिर घर या ट्रैवल की, जिनमें कभी तेज उछाल दिख रहा था, इनकी डिमांड अब कम हो रही है. कॉर्पोरेट इनकम भी इसी ट्रैक पर चल रही है और निफ्टी पर लिस्टेड कंपनियों ने FY25 में सबसे तेज गिरावट दर्ज की है. नौकरियों में कमी से बढ़ी मुसीबत अगला कारण विस्तार से बताते हुए सौरभ मुखर्जी ने कहा कि नौकरियां एक और भी भयावह कहानी बयां करती हैं. आंकड़े देखें, तो साल 2020 से पहले एक दशक तक, सफेदपोश नौकरियां हर छह साल में दोगुनी होती थीं, लेकिन FY20 से ही यह ग्रोथ रेट कम होकर सालाना सिर्फ तीन फीसदी रह गया. इसका मतलब है कि अब नौकरियों को दोगुना होने में 24 साल लगेंगे. मिडिल क्लास की रीढ़ माने जाने रोजगार आईटी, सॉफ्टवेयर और रिटेल स्थिर से नजर आ रहे हैं. उन्होंने ऑटोमेशन को इस गिरावट में तेजी का बड़ा कारण बताया है. AI के विस्तार के साइड इफेक्ट को बताने के लिए उन्होंने टाटा ग्रुप की कंपनी टीसीएस का उदाहरण दिया और बताया कि TCS CEO के. कृतिवासन ने जुलाई 2025 में एआई ग्रोथ के साथ कंपनी अपने कर्मचारियों की संख्या में 2% (लगभग 12,000 नौकरियों) की कटौती की बात कही है.  कंपनियों की कमाई घटना चिंताजनक कंपनियों की इनकम में कमी को भी मुखर्जी उतना ही चिंताजनक करार दे रहे हैं, जितना कि बाकी कारण हैं. उन्होंने कहा कि Nifty-50 कंपनियों … Read more

राधाकृष्णन की एंट्री से सियासत गरमाई, बीजेपी के कदम से उद्धव-स्टालिन पर दबाव

नई दिल्ली उपराष्ट्रपति चुनाव को लेकर बीजेपी ने अपने उम्मीदवार के नाम का ऐलान कर दिया है. एनडीए उम्मीदवार के तौर पर सीपी राधाकृष्णन के नाम पर मुहर लगी है, लेकिन विपक्ष ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं. बीजेपी ने सीपी राधाकृष्णन के नाम का ऐलान कर एनडीए को एकजुट रखने के साथ-साथ विपक्षी किले में भी सेंधमारी का दांव चल दिया है. बीजेपी संसदीय बोर्ड की बैठक के बाद पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने राधाकृष्णन के नाम का ऐलान करते हुए कहा कि विपक्ष के साथ भी बातचीत कर उनके नाम पर सर्वसम्मति बनाने की कोशिश करेंगे. एनडीए की ओर से उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर राधाकृष्णन को उतारना मास्टर स्ट्रोक माना जा रहा है. प्रधानमंत्री मोदी का हर एक फैसला राजनीतिक लिहाज से काफ़ी अहम होता है. ऐसे में राधाकृष्णन का चयन के पीछे बीजेपी की सोची-समझी रणनीति मानी जा रही है. सीपी राधाकृष्णन दक्षिण भारत के तमिलनाडु से आते हैं और फिलहाल महाराष्ट्र के राज्यपाल हैं. इस तरह से बीजेपी ने उन्हें उम्मीदवार बनाकर डीएमके और एआईएडीएमके में सेंधमारी करने के साथ-साथ उद्धव ठाकरे की शिवसेना को भी कशमकश में डाल दिया है. राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति चुनाव में सेंधमारी देश में राष्ट्रपति चुनाव हो या फिर उपराष्ट्रपति का चुनाव, देखा गया है कि सत्तापक्ष ने विपक्षी खेमे में सेंधमारी करती रही है. चाहे कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूपीए का दौर रहा हो या फिर मौजूदा बीजेपी के नेतृत्व वाला एनडीए. यूपीए ने 2007 के राष्ट्रपति चुनाव में प्रतिभा देवीसिंह पाटिल को उम्मीदवार बनाया था, जिनके ख़िलाफ़ एनडीए से भैरों सिंह शेखावत चुनाव लड़े थे. प्रतिभा पाटिल महाराष्ट्र की होने के नाते शिवसेना ने एनडीए गठबंधन का हिस्सा होते हुए भी यूपीए को वोट किया था. इसी तरह 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में यूपीए ने प्रणब मुखर्जी को जब उम्मीदवार बनाया था, तब भी एनडीए का हिस्सा होने के बावजूद शिवसेना और जेडीयू ने यूपीए को वोट किया था. वहीं, 2017 के राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए ने राम नाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया था, तब जेडीयू ने विपक्ष में रहते हुए भी उनका समर्थन किया था क्योंकि वे बिहार के राज्यपाल थे. इसके बाद 2022 में उपराष्ट्रपति पद के चुनाव में एनडीए ने जगदीप धनखड़ को अपना उम्मीदवार बनाया था तो कांग्रेस की तरफ़ से मार्गरेट अल्वा विपक्षी उम्मीदवार थीं. इसके बाद भी टीएमसी ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया था जबकि धनखड़ के साथ ममता की अदावत जगजाहिर रही है.  कशमकश में उद्धव से स्टालिन तक  तमिलनाडु से आने वाले सीपी राधाकृष्णन एनडीए के संयुक्त उम्मीदवार हैं, जो फिलहाल महाराष्ट्र के राज्यपाल हैं. ऐसे में उद्धव ठाकरे की शिवसेना और एमके स्टालिन की डीएमके कशमकश की स्थिति में फंस गए हैं. स्टालिन और उद्धव दोनों ही विपक्षी खेमे में हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने सीपी राधाकृष्णन का नाम आगे बढ़ाकर इन दोनों नेताओं के लिए मुश्किलें बढ़ा दी हैं. उद्धव ठाकरे के लिए मुश्किल यह है कि अगर वे राधाकृष्णन को समर्थन नहीं देते हैं, तो यह सीधा मैसेज जाएगा कि उन्होंने अपने ही राज्यपाल के ख़िलाफ़ जाकर वोट किया. यही वजह है कि शिवसेना (यूबीटी) के नेता संजय राउत ने कहा, "सीपी राधाकृष्णन बहुत अच्छे इंसान हैं, वे विवादास्पद नहीं हैं और उनके पास अनुभव है. मैं उन्हें शुभकामनाएँ देता हूँ." संजय राउत के बयान से साफ़ है कि उद्धव ठाकरे के सामने एनडीए कैंडिडेट का खुलकर विरोध करना आसान नहीं होगा. वहीं, भारतीय जनता पार्टी ने तमिलनाडु की सियासत में भी डीएमके और एआईएडीएमके की टेंशन बढ़ा दी है. तमिलनाडु में क्षेत्रीय अस्मिता काफ़ी अहमियत रखती है. ऐसे में एमके स्टालिन के लिए राधाकृष्णन के नाम का विरोध करना आसान नहीं होगा. इसी तरह से एआईएडीएमके के लिए भी एनडीए के ख़िलाफ़ जाना मुश्किल होगा. विपक्षी एकता कैसे रहेगी बरकरार? उपराष्ट्रपति चुनाव में एनडीए की तरफ़ से सीपी राधाकृष्णन को उम्मीदवार बनाए जाने के बाद कांग्रेस के नेतृत्व वाले 'इंडिया' ब्लॉक के लिए आपसी एकता बनाए रखने की चुनौती खड़ी हो गई है. विपक्ष संयुक्त उम्मीदवार उतारकर एनडीए को टेंशन बढ़ाना चाहता था, लेकिन राधाकृष्णन की उम्मीदवारी होने के बाद 'इंडिया' ब्लॉक में भी सियासी चिंता बढ़ गई है. डीएमके के लोकसभा और राज्यसभा में कुल 32 सांसद हैं और तमिलनाडु की सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते उसके सामने यह दुविधा रहेगी कि वह अपने राज्य के एनडीए उम्मीदवार का समर्थन करे या नहीं. डीएमके के लिए दुविधा इसलिए भी होगी, क्योंकि अगले साल तमिलनाडु में चुनाव हैं और बीजेपी और एआईएडीएमके इसे बड़ा मुद्दा बना सकते हैं. सीपी राधाकृष्णन के नाम से विपक्षी एकता डगमगा सकती है. 2022 में टीएमसी ने वोटिंग में हिस्सा न लेकर कांग्रेस को गच्चा दे चुकी है. अब फिर से कांग्रेस के लिए सियासी चुनौती खड़ी हो गई है. देखना होगा कि उद्धव ठाकरे और एमके स्टालिन उपराष्ट्रपति चुनाव में क्या स्टैंड लेते हैं.

किसानों के फंड पर बड़ा विवाद, CAG रिपोर्ट में खुलासा – 90% पैसा चला सरकारी गाड़ियों में

भोपाल मध्य प्रदेश में किसानों के लिए जारी किए जाने वाले फंड में घपलेबाजी की बात सामने आई है। यह खुलासा भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) ने गुरुवार को मध्य प्रदेश विधानसभा में किया। कैग के मुताबिक किसानों के कल्याण के लिए बनाया गया उर्वरक विकास कोष, सरकारी अधिकारियों की कारों के लिए एक तरह का ईंधन टैंक बन गया है। यानी जो पैसा किसानों के हित में खर्च होना था, उसका इस्तेमाल अधिकारियों की गाड़ी में ईधन भरने, ड्राइवरों के वेतन देने जैसे खर्चों में इस्तेमाल हुआ है। किसानों के फंड से 4.79 करोड़ रुपये का घोटाला आंकड़ों को विस्तार से समझिए। साल 2017-18 से 2021-22 तक, तीन राज्य सरकारों में 5.31 करोड़ रुपये का फंड जारी किया गया। इस फंड का 90 फीसदी यानी 4.79 करोड़ रुपये राज्य और ज़िला स्तर पर सरकारी गाड़ियों, ड्राइवरों के वेतन और रखरखाव पर खर्च किया गया। इस तरह किसानों को प्राकृतिक आपदाओं के दौरान फर्टिलाइजर में मिलने वाली सब्सिडी, ट्रेनिंग या खेती से जुड़ी मशीनें खरीदने जैसे लाभ पर केवल 5.10 लाख रुपये ही खर्च हुए हैं। 20 वाहनों पर हुआ 2.25 करोड़ रुपये का खर्च अकेले राज्य स्तर पर 2.77 करोड़ रुपये खर्च किए गए, जिसमें केवल 20 वाहनों पर 2.25 करोड़ रुपये की भारी-भरकम राशि खर्च की गई। कैग ने ज़ोर देकर कहा कि उर्वरक विकास कोष (एफडीएफ) का मूल उद्देश्य किसानों को जरूरी सहायता मुहैया करना, पीएसीएस यानी लोन देने वाली समितियों को मज़बूत करना और फर्टिलाइजर को रैगुलेट में सुधार करना था। जबकि इसके बजाय इस फंड का इस्तेमाल परिवहन बजट बनाने में हुआ। छूट न देने से 10.50 करोड़ का अतिरिक्त बोझ कैग ने खुलासा किया कि मध्य प्रदेश राज्य सहकारी विपणन संघ (मार्कफेड) डायमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) और म्यूरेट ऑफ पोटाश (एमओपी) उर्वरकों पर छूट का लाभ किसानों को नहीं दे पाया। इस कारण उन पर 10.50 करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ा। 2021-22 में, ऊँची दरों पर फर्टिलाइजर खरीदकर किसानों को सस्ते दामों पर बेचने से मार्कफेड को 4.38 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। इसका खामियाजा आखिरकार सरकारी खजाने को भुगतना पड़ा।

भारत में बढ़ रहा जूनोटिक खतराः इंसानी स्वास्थ्य को गंभीर चुनौती

नई दिल्ली पिछले दो दशकों के आंकड़े उठाकर देखें तो पता चलता है कि दुनियाभर में कई प्रकार की संक्रामक बीमारियों के मामले तेजी से बढ़े हैं। इसके कारण न सिर्फ स्वास्थ्य व्यवस्थाओं पर अतिरिक्त दवाब बढ़ा है, बल्कि बड़ी संख्या में लोगों की मौतें भी हुई हैं। कोरानावायरस हो या मंकीपॉक्स, निपाह हो या इबोला, इन सभी ने इंसानी स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। पर क्या आपने कभी सोचा है कि कई बार ये बीमारियां अचानक कैसे फैल जाती हैं? शोधकर्ताओं की मानें तो हाल के वर्षों में इंसानों में फैली ज्यादातर बड़ी बीमारियों की जड़ जानवरों से जुड़ी हुई है। इस तरह की बीमारियों का जूनोटिक बीमारियां कहा जाता है। इंसानों में देखी जा रही करीब 60% बीमारियां किसी न किसी रूप में जानवरों से आई हैं। यानी अगर दुनिया में कोई नया वायरस या बैक्टीरिया फैलता है, तो बहुत संभावना है कि उसकी शुरुआत इंसानों से नहीं बल्कि जानवरों से हुई हो। इस तरह के रोगों का खतरा और भी बढ़ता जा रहा है। इसी को लेकर हाल ही में हुए एक शोध में वैज्ञानिकों की टीम ने विश्वभर के लोगों को जूनोटिक बीमारियों के खतरे को लेकर सावधान किया है। वैज्ञानिकों ने कहा कि दुनिया की नौ फीसदी जमीन पर जूनोटिक संक्रमण का खतरा है, हर पांचवे इंसान को इस तरह की बीमारियों की चपेट में आने का खतरा हो सकता है। चूंकि इसके मामले तेजी से बढ़ते जा रहे हैं इसलिए सभी लोगों को अलर्ट रहने की आवश्यकता है। दुनिया की लगभग तीन फीसदी आबादी गंभीर खतरे में जर्नल साइंस एडवांसेज में प्रकाशित अध्ययन की इस रिपोर्ट में शोधकर्ताओं ने कहा, दुनिया की लगभग तीन फीसदी आबादी बेहद जोखिम वाले क्षेत्रों में रहती है। वहीं, हर पांच में से एक इंसान मध्यम जोखिम वाले क्षेत्रों में रह रहा है। इटली स्थित यूरोपीय आयोग के संयुक्त अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन में इन बीमारियों का बढ़ते जोखिमों को लेकर लोगों को अलर्ट रहने की सलाह दी है। शोधकर्ताओं ने वैश्विक संक्रामक रोग और महामारी विज्ञान नेटवर्क डाटासेट और विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्राथमिकता वाली बीमारियों की सूची का विश्लेषण किया। डब्ल्यूएचओ की प्राथमिकता सूची में कोविड- 19, इबोला, कोरोना वायरस, सार्स और निपाह जैसी बीमारियां सबसे खतरनाक और संक्रामक मानी गई हैं। अध्ययन में सामने आई चौंकाने वाली बातें अध्ययन में देखा गया कि बढ़ते तापमान, अधिक वर्षा और जल संकट जैसे जलवायु परिवर्तन के कारक इन बीमारियों के खतरे को और बढ़ा रहे हैं। वैज्ञानिकों ने पाया कि दुनिया की 6.3 फीसदी जमीन इन बीमारियों के उच्च और तीन फीसदी बेहद उच्च जोखिम में है। जानवरों से इंसानों में फैलने वाली बीमारियों का सबसे अधिक खतरा लैटिन अमेरिका (27%) में है। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के एक अध्ययन के मुताबिक, साल 2018 से 2023 के बीच भारत में दर्ज की गई 6,948 बीमारियों में से 583 (8.3%) जूनोटिक थीं। द लैंसेट रीजनल साउथईस्ट एशिया में प्रकाशित इस अध्ययन में लोगों को अलर्ट किया गया है। कई जूनोटिक बीमारियां जैसे रेबीज, निपाह वायरस, बर्ड फ्लू, स्वाइन फ्लू, डेंगू, मलेरिया, लेप्टोस्पाइरोसिस और हाल के वर्षों में फैला कोरोनावायरस काफी आम है। इसका संक्रमण अक्सर गंभीर और जानलेवा साबित होता है, क्योंकि इंसानों की रोग प्रतिरोधक क्षमता उसके लिए तैयार नहीं होती। क्यों बढ़ता जा रहा है खतरा? स्वास्थ्य विशेषज्ञ कहते हैं, वनों की कटाई और शहरीकरण के चलते इन बीमारियों के मामले बढ़ते जा रहे हैं। जब जंगल काटे जाते हैं, तो जंगली जानवर इंसानों के करीब आ जाते हैं और उनके शरीर में मौजूद वायरस हमारे शरीर तक पहुंच जाते हैं। दूसरा कारण है जलवायु परिवर्तन। बदलते मौसम के कारण मच्छर और अन्य कीड़े, जो कई रोग फैलाते हैं, नई जगहों पर पनपने लगते हैं। इसके अलावा दुनिया की बढ़ती जनसंख्या और इसके हिसाब से स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी ने भी खतरे को पहले की तुलना में काफी बढ़ा दिया है। भारत में जोखिम की स्थिति कई अध्ययन इस बात को लेकर लोगों को सावधान कर रहे हैं कि भारत में जूनोटिक बीमारियों का जोखिम तेजी से बढ़ता जा रहा है। ये इन रोगों का हॉटस्पॉट बनता जा रहा है। उत्तर-पूर्व भारत और दक्षिण भारत इन रोगों से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं, क्योंकि यहां जंगलों और इंसानी बस्तियों का सीधा संपर्क है और मानसून के कारण मच्छर तथा अन्य वाहक तेजी से फैलते हैं।  निपाह से लेकर डेंगू और लेप्टोस्पाइरोसिस तक, भारत में इन बीमारियों की रफ्तार बढ़ रही है जिसको लेकर सभी लोगों को सतर्क रहने की जरूरत है। समय रहते जागरूकता और रोकथाम के उपाय करके आप इससे बचाव कर सकते हैं।